Saturday, August 31, 2013

नाटक समीक्षा : जुलूस

नाटक समीक्षा : जुलूस(Michil)
  बैनर : इप्टा(IPTA)
निर्देशन : किरन कुमार
लेखक  : बादल सरकार
संगीत :  मनीष
                        प्रभावशाली भारतीय नाटककार और मंच कलाकार बादल सरकार द्वारा लिखित यह नाटक भारत की राजनीति, समाज, धर्म, गरीबी, मीडिया पर गहरा कटाक्ष करता है | किरन कुमार ने अपने निर्देशन से इसमें जान डाल दी है | सभी पात्रों ने अपने अभिनय का लोहा मनवाया है | नाटक के मंचन में सादगी है और ये पात्रों व घटनाओं के प्रवाह में कहीं भी बाधक नहीं बनता |
                         शुरुआत तो एक सामान्य तरीके से हुई , उसके बाद मृत्यु , लेकिन अंत ने सोचने को मजबूर कर दिया | मुन्ना , जिसे सभी अपने घर में वापस बुला रहे होते हैं और मुन्ना किसी और घर की तलाश में घूम रहा होता है | मुन्ना अर्थात भारत की परेशानियाँ(गरीबी, भुखमरी, नशा, राजनैतिक नेतृत्व की कमी आदि ) | देश में हर रोज कई मुन्ना कई कारणों से मर रहे हैं | मुन्ना जब बोलना चाहता है तो पुलिस रूपी सामंती तंत्र उसे पूरी तरह से दबा देता है | वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य में व्यवस्था में परिवर्तन तथा सुधार के लिए कई आंदोलन, जुलूस हो रहे हैं | वे इस नाटक के माध्यम से ये बताना चाहते थे कि जुलूस तो कई निकलतें हैं लेकिन कहीं न कहीं नेतृत्व की कमी से वे जुलूस, आंदोलन सफल नहीं हो पाते हैं | हमारी सामंती सोच को भी इस नाटक में दर्शाया गया है | घटना तब की है जब बस में सभी रोज की तरह सफर कर रहे होते हैं और उसी सफर में एक पुरुष बोलता है “पता नहीं ऑफिस टाइम में कहाँ से ये आ जाती हैं और इसके जवाब में “स्त्रियाँ भी तो ऑफिस जाती हैं”| दूसरी सबसे अच्छी बात, किस तरह से धर्म के नाम पर लोगों को गुमराह किया जा रहा है | “मनुष्य, तू चिंता ना कर, प्रभु है”| मनुष्य अपने कार्य, कर्तव्यों से भटक रहा है | यह बखूबी दिखाया गया है |
                           आज़ादी प्राप्त करने में कितना खून बहा था और उसके बाद का शरणार्थी शिविर (refugee camp) का  दर्दनाक दृश्य, जिसमें खाने के लिए तरस रहे होते हैं | आज़ादी, कैसी आज़ादी है ये? “आज़ादी से पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और आज़ादी के बाद गरीबी के गुलाम हैं”|
                            अंत में नाटक दर्शकों के बीच एक सवाल छोड़ जाता है कि अब आप मुन्ना को बचाएंगे या फिर से कोई नया जुलूस??

                             बादल सरकार के इस नाटक के मंचन के दौरान उपस्थित भीड़ इस बात का प्रमाण है कि लोगों की थिएटर में अभी भी बहुत रुचि  है | 

Monday, August 26, 2013

अफसरशाही, सरकार और जनता?????

"वर्तमान समय में कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठ रहे हैं कि क्या अफसरशाही को दवाब में रखा जाता है,स्वतन्त्र तरीके से कार्य करने में उन्हें कई प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है और उन्हें सजा भी दी जाती है| इसके कारण जनता का विश्वास सरकार तथा अफसरशाही दोनों में ही लगातार कम होता जा रहा है ।"
                             प्रशासन का काम आसान करने तथा सरकार की योजनाओं को जनता तक सही तरीके से पहुँचाने के लिए अफसरशाही व्यवस्था की स्थापना की गयी । अफसरशाही के अंतर्गत देश का पूरा प्रशासनिक ढांचा आता है । सरकार जनता की निर्वाचित प्रतिनिधि होती है| किस तरह कार्यपालिका(सरकार), विधायिका(अफसर) अपने मुद्दों से भटकती जा रही है |                               
                      भारतीय नौकरशाही के बारे में एक आम धारणा बनी हुई है कि नौकरशाही अब भी औपनिवेशिक शासन  काल की तरह ही सोचती और व्यवहार करती है । सुप्रीम कोर्ट भी इस बारे में कह चुका है कि भारतीय पुलिस अभी भी सामंती सोच की तरह काम करती है | नौकरशाही स्व : स्वार्थ के लिए राजनीतिक नेतृत्व के हाथों का खिलौना बनी हुई है । हरियाणा में शिक्षक भर्ती घोटाले में नौकरशाही की पूर्ण भूमिका से यह स्पष्ट हो जाता है । नौकरशाही शक्ति-केंद्र में  तब्दील होती जा रही है । अफसरों ,माफियाओं व्यापारियों और राजनेताओं के बीच साठ -गांठ बढ़ रही है । इसका खामियाजा यह है कि सरकारी योजनायें जनता तक नहीं पहुँच पा रही हैं तथा योजनाओं का लाभ सगे - संबंधियों को पहुँचाया जा रहा है । पूरी व्यवस्था पर एक गंभीर प्रश्न उठ रहा है ।  भ्रष्टाचार में राजनैतिक पार्टी तथा अफसरशाही दोनों के हित एक दूसरे से जुड़े हुये हैं । यदि अफसर बिना किसी दवाब के काम करें तो भ्रष्टाचार कम हो सकता है । सचिव की मंजूरी के बिना एक फाइल आगें नहीं बढ़ सकती है ।
                        2009 में होंककोंग की पोलिटिकल एंड इकोनोमिक रिस्क कंसल्टेंसी ने एशिया की बारह बड़ी अर्थव्यवस्था को लेकर जो सर्वेक्षण किया थाउसके नतीजे में भारतीय नौकरशाही को सबसे निकम्मा और विकास अवरोधक बताया गया है ।
                                पिछले कुछ वर्षों में सरकार  तथा नौकरशाही के बीच विवादों का सिलसिला चल पड़ा है जिससे लोकतान्त्रिक संस्थाओं को गहरा धक्का पहुंचा है | दुर्गा निलंबन ,अशोक खेमका बनाम राबर्ट वाड्रा युनुस खान बनाम रेत माफिया विद्याचरण काडवकर बनाम तेल माफिया । पिछले दो दशकों में 200 आई . ए . एस . अफसर निलंबित हुए जिसमें से 105 सिर्फ यू . पी . से हैं । अशोक खेमका का कांग्रेस शासनकाल में 16  बार  तबादला हुआ है । 60% आई . ए . एस . मायावती सरकार में निलंबित हुए । सवाल यह उठता है कि  यदि कुछ अफसर नियम तथा कानूनों के दायरे में रह कर
 सही काम करना चाहतें हैं तो माफिया रोड़ा बन कर खड़े हो जाते हैं  तथा उन्हें राजनीतिक सरंक्षण मिला हुआ है । सरकार  तथा प्रशासन बार - बार खनन माफियों माफियों के सामने क्योँ झुक रही है इससे सरकार तथा प्रशासन की मंशा पर गहरे सवाल उठना लाजिमी है तथा एक बात और स्पष्ट हो रही है कि  सरकार  तथा प्रशासन को जनता से कोई सरोकार नहीं है ।

                                  यदि नौकरशाही सही तरीके से काम करेगी तो विकास तथा उज्जवल भविष्य का एक नया पथ विकसित होगा । संघ लोकसेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष पीसी होता कमेटी ने इस सिलसिले में कैबिनेट को एक रिपोर्ट सौंपी थी | कोई नौकरशाह जो फैसले नहीं लेता हो सकता है वो हमेशा सुरक्षित रहे लेकिन अंतत: समाज तथा देश के प्रति उसका योगदान कुछ नहीं होता ।हम एक लोकतान्त्रिक देश में रह रहे हैं | अगर इस देश में लोकतान्त्रिक संस्थाओं को पतन हो रहा है तो यह हमारे लोकतन्त्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है |

Sunday, August 25, 2013

सुरक्षित समाज – वास्तव में???????

बलात्कार का मतलब सिर्फ शारीरिक संबंध से नहीं है| घूरना, व्यंग करना, पीछा करना यह भी एक तरह से मानसिक रूप से बलात्कार है, वास्तव में बलात्कार जैसी घटनाओं की शुरुआत यहीं से शुरू होती है16 दिसम्बर की वीभत्स घटनाऔर उसके थोड़े दिन बाद ही वापस दिल्ली में 5 साल की बच्ची का रेप और इस मामले में पुलिस ने लड़की के पिता को केस रफा–दफा करने के लिए रिश्वत की पेशकश करके मानवीयता की सारी हदों को पार कर दिया था| उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ में एक महिला थाने में शिकायत दर्ज करने आई थी और वहाँ एक सिपाही ने महिला का बलात्कार कर दिया | आसाराम बापू पर एक लड़की ने यौन-प्रताड़ना का आरोप लगाया है | ये सभी घटनाएँ लगातार हमारी  कुत्सित मानसिकता की  ओर इंगित कर रही हैं |राजधानी दिल्ली भले ही महिला सुरक्षा के मामले में फिसड्डी हो लेकिन मुंबई के मामले में एक आम धारणा थी कि मुंबई लड़कियों के लिए बहुत सुरक्षित है | वहाँ लड़कियां रात को आराम से घूम सकती हैं लेकिन पिछले दिनों की तीन घटनाओं से यह जाहिर हो रहा है कि मुंबई भी लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं रह गया है | पिछली दो घटनाएँ लोकल ट्रेनों में हुई थी | पहली घटना में मुंबई में लोकल ट्रेन में एक महिला के साथ बलात्कार की कोशिश की गयी तथा दूसरी घटना में एक विदेशी महिला को हमले का निशाना बनाया गया | 23 साल की महिला पत्रकार के साथ सामूहिक दुष्कर्म की वीभत्स घटना ने सम्पूर्ण मुंबई को दहला कर रख दिया है|
                             इन सभी घटनाओं से कई महत्वपूर्ण सवाल उठ रहे हैं | पहला सवाल आखिरकार ये सभी घटनाएँ बढ़ती क्यों जा रही हैं ? इस सवाल के जवाब के लिए हमें इसकी तह तक जाना होगा | हम सभी एक समाज में रह रहें हैं और उसी समाज का हम सभी हिस्सा हैं | हमारा समाज आज भी पितृसत्तात्मक तथा सामंती चहरा का लिबास ओढ़े हुए है | इन कारणों की शुरुआत हमारे घर से ही होती है | अभी हाल ही में दिल्ली पुलिस ने एक रिपोर्ट में कहा है कि इस साल 662 बलात्कार मामलों में 202 पड़ोसी तथा 189 सगेसंबंधी शामिल थे |जब हमारे घर में प्रारम्भ से यह सिखाया जाता है कि लड़की को घर का सारा काम झाड़ू –पोछा आदि करना है और लड़के को पढ़ाई करना है | अधिकतर सभी घरों में आज भी यही स्थिति है|  प्रारम्भिक कक्षाओं की किताबों में लिखा रहता है कि मम्मी कहाँ है -? मम्मी रसोई घर में हैं | पापा कहाँ है -? पापा ऑफिस में हैं | ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि मम्मी और पापा दोनों रसोई घर में हों या मम्मी ऑफिस में हों | नहीं, हमने तो स्त्रियों को घर तक सीमित कर दिया है| शायद यही कारण है कि हमारा आधा समाज अब भी विकसित नहीं हो पाया है| हमारे मन अभी भी स्त्रियों को व्यक्तिगत संपत्ति समझता है | घर की शानो शोकत हमेशा क्यों स्त्रियों से जोड़ी जाती है, लड़कियों के ऊपर भद्दे व्यंग, घूरना ये सब आम बात हो गयी है |यदि घर की एक लड़की का बलात्कार हो जाए और दूसरी तरफ लड़का किसी का बलात्कार कर दे तो लड़की के लिए कहा जाएगा कि लड़की ने ही कुछ गलत किया होगा | इस बात की पुष्टि आसाराम बापू, कैलाश विजयवर्गीय, आरएसएस के बयानों से हो जाती है | अभी हाल ही में मुंबई घटना के बारे में नरेश अग्रवाल का बेतुका बयान इस बात की ओर इंगित कर रहा है कि लड़कियों के साथ बलात्कार उन्हीं के कारण होते हैं | कैसी कुत्सित मानसिकता है? दूसरा सवाल यह है कि इसके कारण लड़कियों के मन में जो डर लगातार घुसता जा रहा है वो कैसे दूर होगा ? मतलब यह कि उन्हें बाहर जाने से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा, यदि वे बाहर जाती हैं तो वे पापा,भाई या घर के किसी सदस्य के साथ जाएंगी |उन्हें भी स्वतंत्र तरीके से घूमने का अधिकार है लेकिन यह मौलिक अधिकार तो उनसे लगातार छीना जा रहा है |

                                    बलात्कार सिर्फ कानूनी समस्या नहीं है | यह कानूनी समस्या से कहीं बढ़कर है, यह एक बहुत बड़ी सामाजिक समस्या है जिसका निदान समाज में ही छुपा हुआ है | फाँसी देना बलात्कार की समस्या का समाधान नहीं है | स्त्रियों की सुरक्षा के लिए कोच,बस में जगह आरक्षित कर दी, बस सुरक्षा की ज़िम्मेदारी खत्म हो गयी | नहीं ,इससे तो लड़के – लड़कियों के बीच फासला और बढ़ता जा रहा है जबकि हमें इसी फासले को कम करना है | हम सोचतें हैं कि कानून व्यवस्था को चुस्त -दुरुस्त कर देने से सारी समस्या हल हो जाएगी लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है | कानून तो कई हैं लेकिन उन कानूनों का पालन कितना हो रहा हैयह सोचने की बात है | सरकार भी समाज से मिलकर बनी है और पुलिस भी हमारे उसी पितृसत्तात्मक तथा सामंती समाज का हिस्सा है| जब तक समाज में जागरूकता नहीं आएगी तब तक कितने ही कानून क्यों न बन जाए लेकिन समस्या का हल नहीं निकलेगा | हमें जेंडर-शिक्षा, जागरूकता व्यापक पैमाने पर फैलानी होगी | समाज धीरे–धीरे बदलेगा और बदल भी रहा है लेकिन बदलने की गति को तीव्र किया जाए | समाज सुधरेगा तो सब कुछ सुधर जाएगा तब स्त्रियाँ एक स्वस्थ्य तथा सुरक्षित वातावरण में जी पाएँगी |