Monday, December 30, 2013

थियेटर : एक बड़ी चुनौती

थियेटर : एक बड़ी चुनौती

थियेटर  करना कोई आसान बात नहीं है | अगर मेरे जैसे इंसान की बात की जाए तो मेरे लिए थियेटर करना किले पर फतेह करने  के समान जैसा है | मेरे लिए साल 2013 की बड़ी उपलब्धियों में से एक है  थियेटर करना | मैंने स्नातक की पढ़ाई में पढ़ा था कि थियेटर वास्तव में समाज की वास्तविकता का दर्पण होता है | मैंने कॉलेज में थियेटर में कोई प्रतिभागिता नहीं की, क्योंकि उस समय मेरे दिमाग में एक बात बैठी हुई थी कि थियेटर बहुत समय मांगता है और सच्चाई भी बिलकुल यही थी | मैंने छात्रावास में रहकर ये सब देख लिया था कि थियेटर में जितने भी लोग हैं वे पूरी-पूरी रात नाटक के लिए अभ्यास करते रहते हैं |  कॉलेज की लाइफ तो बिना थियेटर के निकल गयी | मैं उतना समय थियेटर के लिए नहीं दे सकता था | समय की मांग कुछ ऐसी थी और ऊपर से अभी तक की विद्यालय की शिक्षा की  परवरिश ऐसी थी जहां अभी तक सिर्फ ये सिखाया गया था कि पढ़ाई में अच्छे नंबर कैसे लाने हैं | पढ़ाई का मतलब अभी तक मेरे लिए यही था कि अच्छे नंबर लाने हैं, ताकि सभी लोग खुश रहे | ये पक्ष भी एक नजरिए से ठीक है लेकिन पढ़ाई का मतलब सिर्फ यही नहीं है | अगर अतिरिक्त गतिविधियों की बात की जाए तो इस मामले में मैं बिलकुल शून्य था उस समय तक |
 
                                   थियेटर है क्या ? थियेटर तो कई लोग करते हैं लेकिन सफल तरीके से थियेटर करना क्या है ? आर्टिस्ट और स्टार क्या हैं ? उस समय तो ये सब सवाल दिमाग में आते भी नहीं थे | मैं विद्यालय से निकलकर कॉलेज आ गया जहां मेरी बुद्धि के बंद दरवाजे खुले | हालांकि यह सब संभव होने में काफी समय लगा | एक तरह से कहिए तो मुझे कॉलेज के दूसरे साल के अंत में ये बात समझ आयी थी | मैंने कॉलेज में सोचा कि थियेटर कर लूँ लेकिन फिर से वही सवाल मन में उठने लगता कि यार, समय नहीं  है | कॉलेज बिना थियेटर के बीत गया | 
                                       मैं कॉलेज से निकलने के बाद आईआईएमसी पहुंचा जहां मैंने थियेटर करना शुरू कर दिया | मैं इप्टा जेएनयू से जुड़ा | यहीं से मेरा थियेटर सफर शुरू हुआ | मुझे इप्टा जेएनयू समूह से जुड़े हुए अभी एक साल भी नहीं हुआ है लेकिन इतने कम दिनों में मैंने बहुत कुछ सीख लिया है | अगर मेरे हमउम्र साथियों की थियेटर के मामले में बात की जाए तो वे सभी मुझसे बहुत-बहुत आगें हैं  और उन सभी से मैंने बहुत कुछ सीखा है | कुछ थियेटर की बातें और कुछ थियेटर से इतर | अगर बाक़ी ज्येष्ठ लोगों की बात की जाए तो उन सभी ने मुझे बहुत सिखाया है और ये सभी लोग मुझसे बहुत आगें हैं |  मुझे अभी भी याद है कि जब मैंने पहली बार जुलूस देखा था तो मैं दंग रह गया था | मुझे वो नाटक बहुत पसंद आया था | मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली बार किसी नाटक की समीक्षा लिखी थी | मैं भी इप्टा में शामिल हो चुका था | मैंने भी थियेटर में अभ्यास करना शुरू कर दिया | इसके लिए इप्टा जेएनयू समूह मेरे लिए गुरु के समान बन कर आया | वहाँ सभी लोग कुछ अलग ही हैं | मुझे अभी भी याद है कि इप्टा के पहले दिन मुझसे 5 मिनट खुद के बारे में बोलने के लिए किरण भैया ने बोला था | फिर उसके बाद शुरुआत हुई थियेटर के सफ़र की | जुलूस नाटक जेएनयू में होने के बाद दोबारा कपूरथला में होना था | मैं भी इस नाटक की टीम में शामिल हो गया | मुझे इस बीच बोलने की और भी कई तरह की एक्सरसाइज़ कराई गईं | मुझे जुलूस नाटक में अभिनय करने का मौका मिला और मैं कपूरथला में नाटक के मंचन के लिए गया | हालांकि इस बीच मैं थियेटर के लिए ज्यादा अभ्यास नहीं कर पाया था क्योंकि नाटक के लिए समय बहुत कम मिला था | जुलूस मेरा पहला स्ट्रीट प्ले  था | मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मैं सही तरीके से उसे नहीं कर पाया | मेरे चेहरे पर भावाभिव्यक्ति की बात की जाए तो इस मामले में मैं बहुत बुरा हूँ | पता नहीं क्यों मेरे चेहरे पर भाव जल्दी नहीं आ पाते हैं | कपूरथला में प्ले करने के पश्चात् हम वापस दिल्ली लौटे | मैंने फिर घर आकर अपने सारे छायाचित्र (photos) देखे और अधिकतर छायाचित्रों में मेरे चेहरे से भाव गायब थे | कुछ छायाचित्रों में चेहरे पर स्पष्ट भाव दिखाई दे रहे थे |  ये मेरे लिए पहली बड़ी उपलब्धि थी कि मेरे चेहरे पर भाव दिखलाई देने लगे |

                                    
जुलूस नाटक खत्म होने के बाद चार्वाक नाटक के मंचन का अभ्यास शुरू हुआ | सच कहूँ तो इसी नाटक के अभ्यास के दौरान मुझे पता चला कि थियेटर वास्तव में क्या होता है, थियेटर करना कितना कठिन काम होता है  और आर्टिस्ट क्या होते हैं ? चार्वाक नाटक का अभ्यास पहले तो सिर्फ शनिवार और रविवार को होता था लेकिन उसके बाद लगभग सभी दिन अभ्यास करने आना पड़ता था | दीपावली के बाद से यही नियम हो गया था | मैंने इस बीच अपनी सबसे बड़ी गलती को सुधारा | वह गलती थी स, श और ष के उच्चारण की | थियेटर में वाइस मॉड्युलेशन की एक्सरसाइज़ होती थी | इस अभ्यास के कारण ही मेरा उच्चारण अब बिलकुल सुधर गया है | इस गलती को सुधारने का मौका मुझे इप्टा में जुडने के बाद ही मिला | दूसरी सबसे बड़ी बात,  अभ्यास के लिए आने पर मैं प्रतिदिन कसरत कर लेता था और मुझे व्यक्तिगत तौर पर शांति मिलती थी | आईआईएमसी में क्लास खत्म होने के बाद थोड़ी देर रुककर आईआईएमसी में सीधे टेफ़्लास पहुंचता था | इस समय नाटक के निर्देशन का जिम्मा मनीष भैया के कंधों पर था | मुझे ऐसा लगता है कि यदि किसी काम के लिए किसी से डांट पड़े तो वो काम ज्यादा अच्छे से होता है | मैं चार्वाक नाटक के अभ्यास को कभी नहीं भूल सकता हूँ खासकर इस नाटक के शिष्य वाले द्रश्य के लिए मेरे द्वारा किया गया अभ्यास | मैंने पहली बार लगातार एक से डेढ़ घंटे इस द्रश्य के लिए अभ्यास किया लेकिन मुझसे ये नहीं हो पाया | मैं तो उस दिन बिलकुल रो गया था | मन कर रहा था कि नाटक-वाटक छोड़ो और आईआईएमसी में ही कुछ करो | लेकिन दिल को ये सब मंजूर कहाँ था ? मन कह रहा था कि नाटक-वाटक छोड़ो और दिल कह रहा था कोई बात नहीं, सीखने को तो बहुत कुछ मिल रहा है | दिल और मन के इस द्वंद में जीत दिल की हुई | इस बीच मैंने एक दिन मनीष भैया से जवाब-तलब कर लिया था | मुझे बाद में महसूस हुआ कि गलती मेरी ही थी | मैंने बाद में भैया से ये बात बोली भी | अब शिष्य का रोल हट के मुझे वैदिक मुनि का रोल मिला, उसके लिए भी मेहनत की अपने अनुसार लेकिन वो मेहनत भी कम थी | जैसा की मैंने ऊपर  भी लिखा है कि थियेटर बहुत समय मांगता है और मेरे जैसे व्यक्तियों के लिए तो और भी समय लगता है | कास्टिंग अभी तक निश्चित नहीं हुई थी लेकिन इस समयावधि में मुझे काफी कुछ समझ आ गया था | अंत में मुझे चार्वाक नाटक में जैन मुनि का रोल मिला | अभ्यास के दौरान पता चला कि खड़े होते वक़्त मेरे दोनों पैर समान नहीं होते हैं | एक के ऊपर ज्यादा वजन और एक के ऊपर कम | हाथ मेरे आधे ही खुलते हैं | बॉडी मेरी ढीली नहीं रहती है | ये सभी बातें थियेटर से ही पता चली | चार्वाक नाटक का रायगढ़ में मंचन करने का समय निकट आता जा रहा था | हम लोग रायगढ़ 26 दिसंबर को पहुंचे और मैंने 27 को पहली बार वास्तव में स्टेज प्ले किया | मैं प्ले करने के बाद इस बात से खुश था कि मैंने पहला प्ले कर लिया | सफल तरीके से थियेटर करना क्या होता है ? इसका उत्तर यही है कि जब आप थियेटर करते हैं और दर्शक आपको प्रतिक्रिया देते हैं, तो आपका नाटक सफल है और आप भी सफल हैं | अगर मेरे बारे में बात की जाए तो मैं इस मामले में अभी थोड़ा ही सफल हुआ हूँ | आर्टिस्ट क्या होते हैं ? आर्टिस्ट बहुत ही विनम्र स्वभाव के होते हैं, उनमें किसी भी प्रकार का कोई घमंड नहीं होता है | वे काम करने में विश्वास रखते हैं, ना कि दिखावे में | यही आर्टिस्ट की सबसे बड़ी खासियत है

Monday, December 16, 2013

मैं उड़ना चाहती हूँ, मैं नित नयी उचाईयों को छूना चाहती हूँ |


आज 16 दिसंबर को बीते हुए पूरा एक साल हो चुका है |आज महिलाओं के अधिकारों की मांग हर जगह उठ रही है जो कि हमारे विकास के लिए बहुत जरूरी है | क्योंकि आधी आबादी तो इन्हीं की है |अगर इनका विकास होगा तो पूरे समाज और राष्ट्र का विकास होगा | उन्हीं के लिए समर्पित यह मेरी रचना -


मैं उड़ना चाहती हूँ,
मैं नित नयी उचाईयों को छूना चाहती हूँ 
मैं कुछ कर दिखाना चाहती हूँ 
मैं आसमां में झूम जाना चाहती हूँ 
जालिमों, ये मत समझना, न ही भ्रम रखना 
कि तुम्हारे डराने से मैं डर जाऊँगी 
मैं लड़ूँगी , झूझुंगी, आगें बढ़ूँगी
मैं कर के दिखाऊँगी 
मैं समाज में अपना स्थान पाकर रहूँगी |



आज 16 दिसंबर को बीते हुए पूरा एक साल हो चुका है | क्या कुछ बदला इस एक साल में? दिल्ली सामूहिक दुष्कर्म घटना के चारों आरोपियों (पवन गुप्ता, मुकेश सिंह, विनय शर्मा और अक्षय सिंह ) को फांसी की सजा सुनाई गयी | आरोपियों को हत्या, आपराधिक षड्यंत्र, अपहरण,सामूहिक बलात्कार, अप्राक्रतिक यौन संबंध, हत्या का प्रयास, सबूत नष्ट करने के धाराओं के तहत फांसी की सजा मिली है | पीड़ित छात्रा का दोस्त अवनीन्द्र पांडे इस घटना का एक मात्र चस्मदीद गवाह है, जो कि अभी तक उस दर्दनाक घटना से उबर नहीं पाया है |
16 दिसम्बर को हुई सामूहिक दुष्कर्म की वीभत्स घटना ने सम्पूर्ण भारत को हिलाकर रख दिया था | दुष्कर्म के बाद उसकी मौत तथा उसकी मौत के बाद सरकार के प्रति लोगों का बढ़ता गुस्सा यह दिखा रहा था कि पूरा देश एक कड़े नियमों की मांग कर रहा था | इस पर बहुत वाद-विवाद हुआ तथा अंत में जे.एस. वर्मा की सिफ़ारिशों को स्वीकार किया गया । नियमों में संशोधन कर राष्ट्रीय महिला सुरक्षा अधिनियम बनाया गया | उसके बाद बजट में निर्भया फ़ंड की घोषणा की गयी लेकिन इतने सब से देश कहाँ शांत होने वाला था | 
राम सिंह को इस मामले में मुख्य संदिग्ध बताया गया था. वे इस वर्ष मार्च में तिहाड़ जेल में मृत पाए गए थे | मुकेश, राम सिंह का छोटा भाई था. वे अपने भाई के साथ रहता था और कभी-कभी बतौर बस ड्रा्इवर और क्लीनर काम करता था | 20 साल के विनय शर्मा एक फिटनेस ट्रेनर और जिम असिस्टेंट है | 28 वर्षीय अक्षय ठाकुर बिहार के रहने वाले हैं और वे बस में हेल्पर थे. उन्हें घटना के पांच दिन बाद 21 दिसंबर 2012 को बिहार से गिरफ़्तार किया गया था | अक्षय पर बलात्कार, हत्या और अपहरण के साथ ही घटना के बाद सबूत मिटाने की कोशिश करने का भी आरोप था | पेशे से फल बेचने वाले 19 साल के पवन गुप्ता ने अदालत में दावा किया था कि बलात्कार के समय वो बस में नहीं थे और विनय शर्मा के साथ संगीत कार्यक्रम सुनने गए हुए थे | छठा दोषी घटना के समय 17 साल का था इसलिए उस पर बतौर नाबालिग मुकदमा चलाया गया | 31 अगस्त 2013 को नाबलिग को बलात्कार और हत्या का दोषी पाया गया और उसे एक सुधार गृह में तीन साल की सज़ा हुई | भारतीय कानून के तहत किसी भी नाबालिग को दी जाने वाली ये सज़ा की सबसे ज़्यादा मियाद है | 
साकेत फास्ट ट्रैक कोर्ट के न्यायाधीश योगेश खन्ना ने सजा सुनाते समय कहा था “इन अपराधियों ने क्रूरता की सारी सीमाएं तोड़ दीं | यह एक ऐसा अपराध है जिसने समाज को हिलाकर रख दिया है | ऐसे में अदालत आँख मूदें नहीं रह सकती | समाज में सख्त संदेश जाना जरूरी है | सरकारी वकील का कहना है कि “ये न्याय की मांग थी | न्याय में लोगों का विश्वास बढ़ा | भाई ने कहा कि नाबालिग के नाम पर जो बच गया, उसे भी फांसी की सजा मिले”| बचाव पक्ष के वकील का कहना है कि “ ये झूठमेव जयते है |” 
हालांकि इस सजा से कई बहस के मुद्दों ने जन्म लिया है | पहला सवाल यह है कि जुवेनाईल एक्ट में बदलाव होना चाहिए या नहीं | अपराध के अनुसार सजा मिले या फिर उम्र के अनुसार चाहें अपराध कितना ही क्रूरतम क्यों न हो? दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि फांसी की सजा दे देने से क्या अपराध रुक जाएंगे और क्या हम हिंसक समाज नहीं बनते जा रहे हैं | अधिकतर देशों में फांसी की सजा प्रतिबंधित है | सवाल और भी कई हैं जिनका जवाब अभी भी बाँकी है | 



शुभम गुप्ता

Friday, December 13, 2013

Un-noticed: A goodwill initiative by the JNU Students


“Money should never play a hindrance when the cause is so genuine.” Quips Ranjeet Ranjan an active volunteer at “Unnoticed” when asked about how the finances are handeled. A small group of about 15 JNU student’s started this initiative in 2009, now it has been extended to almost 50 members. These selfless student’s take out atleast 3 hour’s of their time after classes, ie., from 4:00 to 7:00 pm regularly. Academic subjects like English, Mathematics, and Hindi are taught to them in a 2 room classroom provided by the JNU administrative department.While the students learn different subjects as per a time table posted on the door of the classroom, special sessions on dance, storytelling and craft keeps them busy on weekends. On a weekend, they are taught extracurricular activities like art, crafting , taikwando and different outdoor and indoor games (football, cricket ). The kid’s are also taught computer classes. The group of JNU students also look after the educational and medical needs of around 130 such children over five years of age . These kids have been able to make a conscious transition from the alleys on the streets into the four corner’s of a small neat classroom. Rishank, a 13 year old boy has found a new world out of his abode at a workers settlement in Jawaharlal Nehru University (JNU).
                                                                                  While his mother Kaanti bai works at a construction site on the university campus, he is busy learning the calculations of mathematics at an evening class in Teflas. Thanks to “Unnoticed”. This mini school comprises of classes from Kg till the 11th standard. This group has also been successful in admitting around 70 kids to MCD schools around Ber Sarai and Munirka. Also, the provision of a regular school bus has been made by the volunteers so as to provide them pick and drop facility from the school to the workers settlement. “Most of the construction workers are very hesitant to get their children admitted to schools, given their apprehension that the schools would not admit them citing their tendency to change places. It is a genuine concern and we try to address it by talking to the school authorities and the parents also”, says Ranjeet Ranjan. Along with providing education, the group also organizes medical campaigns to provide vaccination to the children. Health records of each child are maintained and assistance is sought from doctors of All India Institute of Medical Sciences
(AIIMS). Being a non profit group, the fund’s are managed by making use of every kids talent. The
students are taught photography and their works are put on sale at photo exhibitions organized by the volunteers. Talking about their fund-raising activities, Ranjan explains, “The recent exhibition we organized got a good response from the visitors. With each print costing Rs 200, the event helped us a lot in raising funds for our activities”. Another un-conventional way of bringing in funds for this cause was by collecting old newspapers from students of Jnu and selling them off to ‘Kabadi-walas’.
Though this is just a small initiative, Ranjeet Ranjan and his members expresses their ardent wish for this noble cause to be recognized by state governments in and around Delhi so that they could somehow be funded to help more such helpless kids who have been deprived of an education. They wish for the “educated gentry” around Indian institutes to take up a similar initiative for the less privileged kids around them.

Monday, December 09, 2013

साक्षात्कार: विनोद जी से “थिएटर की महत्ता”

सबसे पहले तो इस साक्षात्कार के लिए विनोद जी का बहुत बहुत शुक्रिया, जिन्होंने मुझे समय दिया | साक्षात्कार के दौरान पूछे गए प्रश्नों के लिए मोनालिसा को बहुत बहुत धन्यवाद, जिन्होंने मेरी सहायता की :)

साक्षात्कार: विनोद जी से “थिएटर की महत्ता”

“नाटक का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन करना है, मैं ऐसा नहीं मानता हूँ | लोग मरने के बाद स्टार बन जाते हैं, बहुत बड़े व्यक्तित्व बन जाते हैं | हंगल साहब हैं आपटे साहब हैं, जब तक ज़िंदा रहे लोगों ने उनको कभी उस तरह की अहमियत नहीं दी | जो लाखों, करोड़ों का इनवेस्टमेंट कर बड़े थियेटर हाल में अपने चकाचौंध रोशनी के बीच मे, हाइ डेसीबिल साउंड के बीच में नाटक करता है उसको हम स्टार समझते हैं | हमें स्टार की परिभाषा को फिर से देखने की जरूरत है दूसरा मुझे लगता है आज भी हमारे स्टार गाँव में, देहात में, जंगलों में मौजूद हैं |”
                                       
                    यह कहना है विनोद कोष्ठी जी का, जो कि इप्टा थियेटर समूह, दिल्ली में 1998 से जुड़े हुए हैं , जो की अभी तक लगभग कई  नाटक में सक्रिय भूमिका निभा चुकें हैं और अभी भी चार्वाक नाटक में काम कर रहे हैं | सांस्कृतिक माध्यमों से आम आदमी तक जुड़ाव के मकसद से बने इप्टा ने सात दशक पूरे कर लिए | भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक इकाई भारतीय जन नाट्य मंच यानि इप्टा ने 25 मई 1943 को मुंबई में आकार लिया | इन 70 सालों में इप्टा ने आम आदमी के मानस को झकझोरा और सामाजिक सरोकारों से जोड़ा | नुक्कड़ नाटकों से लेकर मुंबई, कोलकाता, दिल्ली और लखनऊ से लंदन तक के सुसज्जित ऑडीटोरिमों में अपने नाटकों से नसों में आवेश भर देने वाले इप्टा के नाटकों का लोहा सभी ने माना | विनोद जी इस समय रोज़ा-लक्ज़मबर्ग स्टीफतुंग( Rosa-Luxemburg-Stiftung) में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं | इन्होंने अपनी पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पूरी की है | इसके अलावा ये शोध करने के लिए विदेश भी गए | अभी भी थियेटर के लिए समर्पण भावना इतनी है कि जॉब से खाली समय मिलते ही थियेटर में ही समय बिताना पसंद करते हैं |
                    इप्टा थियेटर समूह से जुड़ाव के बारे में वे कहते हैं कि जब मैं पढ़ाई के सिलसिले में जेएनयू आया तो जेएनयू में आने के साथ साथ यहाँ के संसक्रति, परंपरा से मेरा परिचय हुआ और उस समय मेरी दोस्ती ऐसे दोस्तों से हुई जो छात्र संगठन में काफी सक्रिय थे | कल्चर को लेकर, थियेटर को लेकर जो एक राजनीतिक द्रष्टिकोण है उसका भी परिचय जेएनयू में ही हुआ | जेएनयू में आने के बाद इप्टा उस समय सक्रिय था, तो मुझे लगा कि मैं कल्चरी एक ज्यादा अच्छे और बेहतर ढंग से अपनी बात को लोगों के बीच रख सकूँ | इसलिए मैं थियेटर से जुड़ा |
                    थियेटर से जुड़े रहने पर अपनी कठिनाईयों के बारे में बहुत ही सरल तरीके से हँसते हुए बताते कहते हैं कि यहाँ पर दिल्ली में मैं अकेला ही रहता था तो आम तौर पर परिवार वाली कोई समस्या नहीं थी | लेकिन कुछ किस्से हैं जिन्हें मैं यहाँ बताना चाहूँगा | एक बार अभ्यास के दौरान मेरी दीदी और जीजा जी मुझसे मिलने के लिए आतें हैं | वे दो दिन के लिए मेरे पास आते हैं और उस दो दिन में ऐसी स्थिति रहती है कि हमें शो करना होता है, हमें नाटक की तैयारी बहुत कमजोर रहती है | इत्तेफ़ाक से मैं यह निर्णय नहीं ले पाता हूँ कि मैं बहन के पास समय बिताऊँ या थियेटर का अभ्यास करूँ | मेरे दिल में जो आया सो मैंने किया और मैंने थियेटर का अभ्यास किया और उसका नतीजा मुझे अगले तीन महीने तक भुगतना पड़ा | दीदी ने मुझसे बात नहीं की | कई बार अभ्यास के लिए 10-10 12-12 घंटे भी बिताना पड़ता था | सिर्फ बेहतर प्रदर्शन के लिए | आपको पारिवारिक, निज़ी ज़िंदगी का परित्याग करना पड़ता है |
                      उन्होंने थियेटर के लिए अपना रोल मॉडल बहुत ही सटीक बताया | अधिकतर सभी लोग अपना रोल मॉडल किसी न किसी बड़े कलाकार को मानते हैं लेकिन उनका जवाब था “एक आम इंसान है जो गरीब है जिसके पास शिक्षा के साधन नहीं हैं, जिसकी सोच बहुत विकसित है | वो हमेशा से मेरे लिए रोल मॉडल रहे हैं |” जब भी मैं नाटक करूँ तो क्या मैं मेरे एक्ट के जरिये, संवाद के जरिये उससे जुड़ पा रहा हूँ कि नहीं |
                      थियेटर बातों को पहुंचाने का एक प्रभावी माध्यम है लेकिन भारत क्या सम्पूर्ण विश्व में इस माध्यम का प्रभाव कम होता जा रहा है | इसके कई कारण हैं | थियेटर का बाज़ारीकरण कर दिया गया है | नाटक सामाजिक मुद्दों से भटककर बाजारी मुद्दे पर होते जा रहे हैं | नाटक की मूलभावना है कि लोगों से जुड़ना और संवाद स्थापित करना लेकिन यही मूलभावना का ह्रास होता जा रहा है | पूंजीवाद के पनपने के कारण लोगों के पास साधन सीमित हो गए हैं | जो हथियार लोगों के पास थे आज वे पूंजीवादी संस्थाओं के पास हैं |
                         दर्शकों की प्रतिक्रिया पर कहते हैं कि कई बार नाटक किस वक़्त रैली में तब्दील हो गया, ये पता ही नहीं चला | लोग आपके साथ चलते रहे, आपने उनके साथ उनकी कई दूरी तय कर ली | एक नाटक “बाइज्जत बारी किया जाएगा “ के अंत में सारे आर्टिस्ट मंच से बाहर निकल आए और करीब चार मिनट तक दर्शक वहीं पर खड़े रहे | ना कोई ताली, ना कोई चहल-पहल | उस नाटक के कारण इतना मजबूत संदेश होता है कि दर्शक वहाँ से हिलते नहीं हैं और मजबूरन हमें साइट पर दोबारा जाना पड़ता है | और एक प्रतिक्रिया मुंबई में यह रही कि एक 22 मिनट के नाटक में शुरुआती 5 मिनट में सिर्फ 4 ही दर्शक बचें और वो भी अपने में ही बात कर रहे थे | सिर्फ एक कुत्ता हमारी तरफ पूंछ हिलाते हुए देख रहा था | एक चाय वाला हमें दूर से झांक रहा था | हम लोगों ने नाटक जारी रखा कि शायद कोई जुड़े आकार लेकिन उस दिन एक सीख मिली “नाटक करना आसान काम नहीं है और लोगों   को नाटक के साथ जोड़ना आसान नहीं है |
                            थियेटर करियर के रूप में मेरे लिए कहीं भी नहीं खड़ा है | थियेटर मेरे लिए करियर है ही नहीं | जो लोग थियेटर को करियर के रूप में अपनाना चाहते हैं, उनके लिए बस इतना कहना चाहूँगा कि थियेटर को कररियर के रूप में नहीं देखना चाहिए | लेकिन आपको यह लगता है कि आपकी जीविका बहुत कम संसाधनों में हो सकती है तो आप जाइए | थियेटर बहुत संघर्ष मांगता है | बहुत धक्के खाने पड़ते हैं | लेकिन जिनको थियेटर करना ही है तो वे जाए लेकिन बहुत द्रढ़निश्चयी होकर जाएँ |
                                                         




Wednesday, December 04, 2013

महरौली विधानसभा चुनाव : कौन होगा अगला दावेदार

महरौली विधानसभा चुनाव : कौन होगा अगला दावेदार


दक्षिणी दिल्ली में महरौली विधानसभा क्षेत्र के 1,44,000 लोगों ने अपना फैसला मतदान पेटियों में बंद कर दिया है | यहाँ लगभग 65% लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है | महरौली विधानसभा क्षेत्र से काँग्रेस के वरिष्ठ नेता  और विधानसभा अध्यक्ष योगानन्द शास्त्री, बीजेपी से प्रवेश वर्मा , आम आदमी पार्टी से नरेंद्र सिंह सेजवाल, बीएसपी से सुरेन्द्र पवार, निर्दलीय  प्रत्याशी अनुपम कुमार शर्मा और बिमलेश कुमार झा, एनसीपी से प्रेम दत्त शर्मा और आदर्शवादी काँग्रेस पार्टी से नरेंद्र सिंह चुनावी मैदान में हैं | यदि पूरे क्षेत्र को देखा जाए तो यहाँ योगानन्द शास्त्री और प्रवेश वर्मा के बीच कड़ी टक्कर है |
                    बीएसपी के उम्मीदवार की बात की जाए तो वे पहले काँग्रेस से टिकट मांगने के लिए काफी प्रयास कर चुके थे लेकिन जब उन्हे टिकट नहीं मिला तो वे बीएसपी से टिकट लेकर चुनावी मैदान में उतार आए | प्रवेश वर्मा के ऊपर एक आपराधिक मामला चल रहा है | बीजेपी, काँग्रेस, बीएसपी, आप सभी के उम्मीदवार करोड़पति हैं |      
                   महरौली विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत कुसुमपुर पहाड़ी, राजोकरी गाँव, वसंत कुंज, मसुदपुर, किशनगढ़ गाँव, जे.एन.यू. , बेरसराय, कटवारिया सराय, महरौली, लाडोसराय और साकेत हैं | यहाँ कुल 160 मतदान केंद्र हैं |
                   अगर मुद्दों की बात की जाए तो महरौली विधानसभा क्षेत्र में जगह के हिसाब से अलग- अलग मुद्दे हैं | बेरसराय, कुसुमपुर पहाड़ी, राजोकरी गाँव, मसुदपुर, किशनगढ़ गाँव, जे.एन.यू., कटवारिया सराय, महरौली, लाडोसराय की बात करें तो यहाँ की मुख्य समस्यायें पानी, बिजली, सीवर की उचित व्यवस्था, पार्किंग की उचित व्यवस्था, मंहगाई हैं | एक ग्रहिणी ने अपना गुस्सा जाहिर करते हुआ कहा था “चुनाव आए और प्याज 30 रुपए प्रति किलो हो गया और टमाटर भी सस्ता हो गया, क्यों ? सरकार हमें क्या बेवकूफ समझती है क्या ?” एक टेम्पो वाले का कहना था कि “मंहगाई इतनी बढ़ गयी है कि अब गुजारा नहीं हो पाता |” यहाँ के लोगों का कहना है कि सरकार ने हमारे साथ पक्षपात किया है | वसंत कुंज और साकेत में सारा पैसा लगा दिया गया है, यहाँ के लिए तो कुछ बचा ही नहीं | अगर बात की जाए वसंत कुंज और साकेत की, तो वहाँ की स्थिति कुछ और ही बयां करती है | वहाँ के मुद्दों में मुख्तया भ्रष्टाचार और सुशासन हैं | एक व्यक्ति ने वोट देने के बाद आ कर कहा कि “ऐसा नहीं है मंहगाई बढ़ी है, मैं मानता हूँ कि मंहगाई बढ़ी है लेकिन साथ ही साथ आमदनी भी बढ़ी है | इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए |” एक कामकाजी महिला ने कहा कि “हम अब बदलाव चाहते हैं |” कई लोगों के तो वोटर लिस्ट में नाम ही नहीं थे |

                         अगर वोटिंग की बात की जाए तो बेरसराय में लड़ाई बीएसपी और बीजेपी की , लाडोसराय में आप और बीजेपी, वसंत कुंज में लगभग काँग्रेस और बीजेपी, कुसुमपुर पहाड़ी में काँग्रेस और बीजेपी, किशनगढ़ में भी बीजेपी और काँग्रेस, महरौली में बीएसपी और बीजेपी की है | कटवारिया सराय में आप और बीएसपी को फायदा मिलता दिखाई दे रहा है क्योंकि यहाँ मुस्लिम आबादी ज्यादा है | बेरसराय में कुल तीन मतदान केंद्र थे जिसमें से 61 में 1345, 62 में 1069, 63 में 1112 कुल प्रत्याशी थे | कुल प्रत्याशी 3526 थे | पिछली बार यहाँ वोट लगभग 1500 पड़ा था लेकिन इस बार 2200 से ऊपर वोट पड़ा है |

                            अगर राजनीतिक समीकरणों की बात करें तो यहाँ बीजेपी को बढ़त मिलती हुई दिखाई दे रही है | इसमें कुल मतदाता 1.44 लाख हैं जिसमें 80,791 पुरुष और 63,472 महिलाएं हैं | काँग्रेस पिछले 10 सालों से यहाँ गद्दी पर बैठी हुई है | यहाँ पानी और सीवर की बहुत बड़ी  समस्या है | यहाँ 50% से ज्यादा पानी के कनेक्शन अनाधिकृत हैं | यहाँ चार जलाशयों के निर्माण के लिए के लिए 210 करोड़ रुपए की स्वीकृति हो चुकी है लेकिन पानी की समस्या की स्थिति अभी भी जस की तस है | अनधिकृत ढांचों का निर्माण भी यहाँ की एक बड़ी समस्या है जिस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है | 90 करोड़ रुपए सीवरेज़ योजना के लिए स्वीकृत हो चुका है | यहाँ स्थानीय लोगों का कहना है कि इन सभी समस्याओं को हल करने के लिए इतना ज्यादा समय क्यों लग रहा है ? यहाँ सड़कों की बहुत बड़ी समस्या है | छोटी-छोटी सकरी सड़कें बनी हुई हैं जिनसे निकलना तक मुश्किल हो जाता है |  कुसुमपुर पहाड़ी में 4200 बस्तियों को साफ करके आठ मंज़िला इमारत बनाई जा रही है | ये वहाँ एक बड़ा मुद्दा बन चुका है | इन सभी कारणों से मतदान प्रतिशत काँग्रेस के विरोध में जाता हुआ दिखाई दे रहा है | बीजेपी के उम्मीदवार प्रवेश वर्मा का कहना है कि यदि वे सत्ता में आते हैं तो वे पानी के वितरण के लिए एक सुव्यवस्थित तंत्र विकसित करेंगे | आप के उम्मीदवार की बात करें तो वे लाडोसराय से हैं और उनका प्रभाव क्षेत्र वहीं तक दिखाई दे रहा है | बाकी जगह है भी तो थोड़ा बहुत | बात करें अगर बीएसपी के उम्मीदवार की, तो वे बेरसराय से हैं | बेरसराय में उनका अच्छा खासा प्रभाव देखा जा सकता है | महरौली में भी रिश्तेदारी की वजह से कुछ  ज्यादा प्रभाव देखा जा सकता है | बाकीं जगहों पर बहुत कम प्रभाव है | यही कहा जा सकता है कि असली लड़ाई बीजेपी और काँग्रेस की है | ऐसा नहीं है कि आप और बीएसपी को वोट नहीं मिल रहे हैं |  उन्हें भी वोट मिल रहे हैं लेकिन एक सीमित क्षेत्र तक हालांकि ये तो 8 दिसंबर को ही पता चलेगा कि कौन जीता है ?? बीजेपी, काँग्रेस, बीएसपी या आप या फिर कोई और