Thursday, March 27, 2014

रंगमंच दिवस-मुबारका

आज अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस(World Theater Day) है | मैं इससे पहले नहीं जानता था कि अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस कब है और शायद तब मेरा इससे कोई वास्ता भी नहीं था | लेकिन कहीं न कहीं दिल के किसी कोने में रंगमंच के लिए मेरा सम्मान था | मैं जब आईआईएमसी आया, तो मैंने यहाँ सबसे पहले नाटक "जुलूस" देखा,  उस नाटक में वर्तमान भारत की समस्या को बखूबी ढंग से पेश किया गया था | मुझे वो नाटक बहुत पसंद आया था और मैंने पहली बार किसी नाटक की समीक्षा लिखी | मेरा भी मन करने लगा कि मैं भी थियेटर ज्वाइन करूँ और मैंने कुछ दिनों बाद थियेटर ज्वाइन कर लिया | ज्वाइन तो कर लिया लेकिन मेरे लिए थियेटर करना हमेशा से एक चुनौती रहा है और हमेशा रहेगा भी | मेरे अनुसार, थियेटर करना कोई आसान बात नहीं है | "थियेटर एक कला है जिसके माध्यम से आप लोगों से बहुत ही अच्छे तरीके से जुड़ जाते हैं | कभी भी कोई कलाकार अपनी कला  का घमंड नहीं करता है | ये बात भी मैंने थियेटर में ही देखी"| आज मैंने जो कुछ भी थियेटर करना सीखा है,वो सब जेएनयू इप्टा की बदौलत ही सीखा है | उनके बदौलत ही मैंने कपूरथला और पंजाब में प्ले किया और वो एक बहुत ही अच्छा अनुभव था | थियेटर आपको मानसिक शांति प्रदान करता है | मैं जब भी थियेटर करने जाता था, मैं बहुत ही टेंशन फ्री हो जाता था | इसमें ऐसी शक्ति है कि आप खुश रह सकते हैं | मैंने इप्टा समूह में बहुत सी बातें सीखीं, जिनमें से कुछ से मैं सहमत नहीं हुआ, लेकिन तब भी मैंने बहुत कुछ सीखा | थियेटर एक परिवार की तरह है और मैं भी उस परिवार का हिस्सा हूँ | और इसे सफल बनाने के लिए जेएनयू इप्टा समूह का मैं शुक्रगुजार हूँ और इसके लिए सभी लोगों का तहे दिल से शुक्रिय अदा करता हूँ | आप सभी को रंगमंच दिवस बहुत-बहुत मुबारक | Thanku Thanku very much IPTA.   Thanks to my IIMC friends.

Thursday, March 20, 2014

खेल कुर्सी का



खेल कुर्सी का
वाराणसी से 7 आरसीआर का रास्ता अभी भी बहुत दूर है | ऐसे में ये देखना काफी दिलचस्प होगा कि गंगा घाट में कीचड़ में कमल खिलेगा या फिर झाड़ू से वहाँ की सफाई होगी | गंगा के पवित्र पानी में सफाई होगी या कमल खिलेगा या फिर हाथ पूरी तरह से धुल जाएंगे | अब वाराणसी  में बीजेपी से एक नया शेर दहाड़ने आ गया है | पुराने शेर मुरली मनोहर जोशी अब कानपुर से चुनाव लड़ेंगे |अरविंद केजरीवाल के चुनाव लड़ने पर सपा के एक नेता ने ये बयान दिया है कि हम केजरीवाल को समर्थन करेंगे | हम अपना प्रत्याशी नहीं उतारेंगे |  यह भी हो सकता है कि मोदी को रोकने के लिए कई और दल केजरीवाल के समर्थन में आ जाएँ |
                                          बड़ा सवाल वाराणसी के लिए ये है कि आरएसएस मोदी को वाराणसी से उतारने के लिए इतना उतावला क्यों हो रहा है ? सूत्रों के हवाले से ये खबर है कि आरएसएस ने वाराणसी में पहले से ही मोदी के लिए सर्वेक्षण करा लिया है | वाराणसी सीट से मोदी के चुनाव लड़ने पर पूर्वांचल और बिहार में कुछ सीटों पर फर्क पड़ सकता है | वाराणसी में मोदी के समर्थन में गंगा की आवोहवा है लेकिन केजरीवाल के आने से वहाँ की आवोहवा कहीं न कहीं दूसरी तरफ मुड़ती हुई दिखाई दे रही है |  एक बात तो बिलकुल स्पष्ट है कि यदि बीजेपी ने केजरीवाल को हलके में लिया, तो बीजेपी के लिए केजरीवाल नुकसानदायक साबित होंगे |  
                                                      मुरली मनोहर जोशी को वाराणसी से न उतारने का सबसे बड़ा कारण ये है कि एमएम जोशी यदि वहाँ से चुनाव लड़ते तो वे इस बार चुनाव हार जाते | ऐसा संघ के सर्वे में भी सामने आया है | मोदी को वाराणसी से उतारना कहीं न कहीं हिन्दू मतों को एक तरफ करना है लेकिन इस बात की कोई निश्चितता नहीं है कि वहाँ की जनता अभी भी इसी आधार पर वोट करेगी |
                                                                यदि बीजेपी के प्रधानमंत्री  पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की बात की जाये तो बनारस में मुकाबला काफी दिलचस्प होने वाला है । क्योंकि अब वहाँ केजरीवाल ने बनारस में चुनौती स्वीकार कर ली है । आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने भी नरेंद्र मोदी को टक्कर देने का एलान किया है। हालाँकि केजरीवाल ने वाराणसी से चुनाव लड़ने की बात तो कही, लेकिन ये भी जोड़ दिया कि यदि वहां की जनता उन्हें टिकट देती है तब वो लड़ेंगे । उत्तर प्रदेश में बनारस की सीट पर मुकाबला काफी दिलचस्प होने वाला है लेकिन ये तो आने वाला समय ही बतायेगा कि बनारस में कौन जीतेगा ? अगर केजरीवाल की बात करें तो वो भी अभी तक काफी विवादास्पद नेता रहे हैं । क्या वे दिल्ली की विजय को बनारस में दोहरा पाएंगे ? बनारस सीट यूपी में कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि बनारस पूरे पूर्वांचल और बिहार में कुछ सीटों पर असर डालता है । बनारस की बात की जाये तो वहाँ सरयू पार पंडित आधिक्य में हैं । अगर इनके झुकाव की बात की जाये तो इनका झुकाव बीजेपी की तरफ ज्यादा है । दूसरी, सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि बनारस में हिन्दू आबादी बहुत अधिक है । मोदी और केजरीवाल के अलावा समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी भी वाराणसी के चुनावी मैदान में हैं, और भी उम्मीदवार हैं और चुनावी संघर्ष बहुकोणीय दिखाई देता है | ज्यादातर उम्मीदवार भी वाराणसी के निवासी नहीं हैं जिन्हें अक्सर 'बाहरी' भी कहकर बुलाया जाता है । यदि बसपा के उम्मीदवारवार आरपी जायसवाल की बात की जाये, तो उनका भी कोई ख़ास प्रभाव नहीं दिखाई देता है । वे बनारस के लिए अजनबी हैं ।। बात अगर सपा के प्रत्याशी कैलाश चौरसिया की जाये, तो वे मिर्जापुर से विधायक हैं  और वे भी बनारस के लिए अजनबी हैं । खेल बिगाड़ने में नाम मुख्तार अंसारी का भी है । तो बनारस का मुकाबला बहुकोणीय होगा । 
                                                            एक बड़ा सवाल ये है कि यदि बीजेपी विकास को आधार मान कर चुनाव वहाँ से लड़ रही है, तो कहीं न कहीं ये दिखावा मात्र है | अगर वाकई में बीजेपी के लिए वाराणसी में विकास मुद्दा है तो क्यों एमएम जोशी ने वहाँ विकास नहीं कराया, क्यों एमएम जोशी को अपनी कुर्सी छोड़ कर कहीं और जाना पड़ा ? आंकड़ों पर यदि नज़र दौड़ायेँ,  तो पिछले 25 सालों में सबसे ज्यादा वहाँ बीजेपी सिंहासन में रही है, फिर भी बनारस शहर की हालत खस्ता है | क्या बीजेपी इसका जवाब दे सकती है ?  
                                                        यदि विकास पुरुष नरेंद्र मोदी की बात की जाए, तो उन्हें इतना विश्वास है ही कि वे जीत जाएंगे तो फिर भी वे वडोदरा से चुनाव क्यों लड़ रहे हैं ? कहीं न कहीं बीजेपी को भी हार का डर है | वडोदरा नरेंद्र मोदी के लिए एक सुरक्षित जगह है |                                                               उत्तर प्रदेश में खेल काफी दिलचस्प होने वाला है , लेकिन एक बात तो  तय है कि उत्तर प्रदेश से बसपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी । बसपा की रणनीति बहुत हद तक ज़मीन पर निर्भर पर है । हालाँकि उनकी रैलियों को मीडिया में ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है  लेकिन उनको कम आंकना एक बहुत बड़ी भूल होगी । उत्तर प्रदेश में इस बार असल लड़ाई बसपा और बीजेपी के बीच है । 






Monday, March 17, 2014

क्षेत्रीय दल : प्रहरी या मौकापरस्त


    क्षेत्रीय दल : प्रहरी या मौकापरस्त
भारत में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों का सहारा जरूर लेना पड़ेगा | बिना क्षेत्रीय पार्टियों के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचना असंभव है | लोकतंत्रात्मक पद्धति दलीय व्यवस्था पर आधारित है। इंग्लैड सहित विश्व के कुछ देशों ने जहाँ द्विदलीय लोकतन्त्रात्मक पद्धति को आपनाया हुआ है वहीं भारत जैसे विश्व के सबसे बडे लोकतन्त्रात्मक में बहुदलीय पद्धति है। देश में इस समय तमाम छोटी पार्टियों का उदभव हो रहा है | पहले आम चुनाव में देश में चौदह राष्ट्रीय दल थे और राज्य स्तर के क्षेत्रीय दलों की संख्या मात्र 39 थी। इसकी तुलना में यदि हम आज की स्थिति देखें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय दलों की संख्या कुल सात रह गयी थी और क्षेत्रीय दल कुल मिलाकर 360 हो गये थे। यह सही है कि इनमें से सब मान्यताप्राप्त दल नहीं थे, पर यह स्थिति इतना तो बताती ही है कि हमारी राजनीति में क्षेत्रीयता और वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं का स्थान और हस्तक्षेप पिछले साठ सालों में लगातार बढ़ा है। पहली लोकसभा के चुनावों में भाग लेने वाले क्षेत्रीय दलों को सिर्फ 34 सीटों पर विजय से संतोष करना पड़ा था और प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि सन् 2009 के चुनावों में सारे देश से क्षेत्रीय दलों के 146 सांसद जीतने में सफल हुए थे। आंध्र के विभाजन के निर्णय के बाद जो स्थितियां बनी हैं, वे यह संकेत भी दे रही हैं कि देश के अन्य हिस्सों में भी क्षेत्रीय जनाकांक्षाएं करवट ले रही हैं और इसका सीधा असर क्षेत्रीय दलों के महत्व और ताकत पर पड़ेगा।
                                           सबसे रोचक बात तो ये है कि क्षेत्रिय पार्टियों के क्षेत्र में आने वाली सीटों की बात की जाए तो   सन् 2009 के चुनावों में सारे देश से क्षेत्रीय दलों के 146 सांसद जीतने में सफल हुए थे। इस बार के चुनावों में इनका प्रभाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है | अनुमान लगाये जा रहे हैं कि 2014 के चुनाव में शहरी भारत में आपजो सेंध लगायेगी, उसमें उसे 15-20 से लेकर 30-40 सीटें मिल सकती हैं। यदि यह संख्या 30-40 होती है तो संभव है कांग्रेस-भाजपा के बाद तीसरी बड़ी पार्टी आपही बने। लेकिन यदि इतनी सफलता नहीं भी मिलती तब भी देश के अन्य प्रमुख क्षेत्रीय दलों-बसपा, सपा, जेडीयू, अन्ना द्रमुक, द्रमुक आदि- जितनी ताकतवर तो आपभी बनेगी। यानी संसद में एक और क्षेत्रीय दल’! यह अवश्य देखने की बात होगी कि न किसी को समर्थन देंगे, न किसी से समर्थन लेंगेका नारा लगाने वाली आपअगली संसद में क्या और कैसी भूमिका निभाती है।  यह एक हकीकत है कि पिछले लगभग पच्चीस साल में केंद्र की सरकारें क्षेत्रीय ताकतों के सहयोग या कहना चाहिए सहारे, से ही चली हैं। 
                                       भारत के प्रमुख क्षेत्रीय दलों पर नज़र डाली जाए तो प्रमुख दलों में सपा, बसपा, जेडेयु, एआईडीएमके, डीएमके, बीजू जनता दल,  तृणमूल काँग्रेस, अकाली दल, टीआरएस, टीडीपी, शिवसेना, एनसीपी, मनसे, नेशनल कांफ्रेस, हजका, आरजेडी, आरएलडी, सीपीआई, सीपीआई(एम) आते हैं | ये सभी दल बड़े राज्यों में स्थिति हैं जहां लोकसभा की सीटें बहुत ज्यादा हैं | कहा जाए तो प्रधानमंत्री बनने के लिए यहाँ से अच्छे मतों से जीतकर जाना होगा या गठबंधन करना होगा | आंकड़ो पर नज़र दौड़ायेँ तो ये सभी पार्टियों को कुल मिलाकर लगभग 250 से ऊपर सीट हो जातीं हैं | लोकसभा चुनाव, 2009 में देश को दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों की संयुक्त मत हिस्सेदारी 47.5 फीसद रही जो पिछले चुनाव के मुकाबले 1.2 फीसद कम रही। 1991 के लोकसभा चुनाव में इन दोनों पार्टियों की संयुक्त मत हिस्सेदारी करीब 57 फीसद थी। पिछले दो दशक के दौरान इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों की मत हिस्सेदारी में करीब 10 फीसद की गिरावट देखी गई। राष्ट्रीय दलों की मत हिस्सेदारी में गिरावट का यह आंकड़ा यह बताने को काफी है कि इस कालखंड के दौरान भारतीय राजनीति का कितना क्षेत्रीयकरण हुआ। तो इसी बात से समझा जा सकता है कि इन दलों का कितना ज्यादा महत्व है |
                                       भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों पर दलीय हितों के आरोप लगते रहे हैं |  उनके ऊपर ये आरोप लगते हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर पर न सोच कर क्षेत्रीय स्तर पर सोचते हैं | ऐसे में क्षेत्रीय दलों के ऊपर एक बहुत बड़ा सवाल उठने लगता है कि वे लोकतन्त्र के रक्षक हाँ या फिर खतरा हैं | तृणमूल कॉंग्रेस की नेता ममता बनर्जी के चलते रेल बजट के बीच में दिनेश त्रिवेदी को पद छोड़ना पड़ा. एक दुसरे क्षेत्रीय दल डीएमके के दबाव के चलते भारत सरकार को अपना परंपरागत रुख छोड़ कर श्री लंका के खिलाफ मतदान करना पड़ा |  
बजट की निंदा के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणब मुख़र्जी दोनों ने हालात के लिए गठबंधन की राजनीति को ज़िम्मेदार बताया | ऐसे में दूसरा पक्ष ये कहता है कि लोकतंत्र की म़जबूती के लिए राज्यों में तीसरे दलों का और केंद्रीय स्तर पर तीसरे मोर्चे का म़जबूत होना और रहना जरूरी है। दो दलीय प्रणाली हमेशा ही लोकतंत्र को सीमित करती है और वैसी परिस्थिति में जनतंत्र सत्ता  के दलालों के हाथों में पूरी तरह चला जाता है। अमेरिका और ब्रिटेन सहित यूरोप के कई प्रमुख देशो में ऐसा हो भी चुका है।
                                    भारतीय राजनीति में पिछले दो दशकों में तेजी से विकसित हुए क्षेत्रीय दलों के प्रभाव के कारणों का जायजा लिया जाय तो कई कारण नजर आते हैं ! कहीं ना कहीं आपातकाल के कारण देश की जनता के मन में सत्ता के विकेन्द्रीकरण की समझ विकसित हुई ! सत्ता के केन्द्रीयकरण से असंतुष्ट जनता के बीच तत्कालीन कांग्रेस सरकार की मनमानी रास नहीं आई और परिणामत: क्षेत्रीय दलों के प्रति जनता ने भरोसा दिखाना शुरू किया ! इस संदर्भ में अगर यू.पी एवं बिहार में क्षेत्रीय दलों के प्रादुर्भाव को ही देखें तो यू.पी में दलित बहुजन का मुद्दा लेकर दलित वोटर्स का ध्रुवीकरण करने के लिए कांशीराम आगे आये तो वहीँ यादव-पिछड़ा-मुस्लिम वोटर्स के एजेंडे पर मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी का जन्म हुआ ! यू.पी में नवगठित इन दोनों राजनीतिक दलों ने कांग्रेस के वोटबैंक में ही सेंध लगाईं और समय पडने पर राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस के खिलाफ लामबंद भी हुए ! वहीँ बिहार में लालू प्रसाद यादव ने मुस्लिम-यादव समीकरण तैयार कर कांग्रेस और वामपंथ की जमीं खिसका दिया ! राज्यों के स्थानीय मुद्दों पर स्थानीय सियासत करने एवं जातिगत आधार पर एजेंडा तय करने का यह फार्मूला क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के विकास की वजह बना ! कभी कांग्रेस के धुर समर्थक रहे दलित और मुस्लिम आजकल यू.पी में कांग्रेस से बहुत दूर हो चुके हैं ! 
                                   क्षेत्रीय दल चुनाव आते ही अपना पाला बदलने लगते हैं | अभी कुछ ही दिन पहले रामविलास पासवान एनडीए में शामिल हो गए और ये वही नेता हैं जो बीजेपी को भारत जलाओ पार्टी कहते आए हैं और आज भारत बनाओ पार्टी कह रहे हैं | क्षेत्रीय दलों की विचारधारा की बात की जाए तो उनकी विचारधारा राजनीतिक हवा की तरह बदलती रहती है |  भारतीय राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं | 1991 में कांग्रेस सरकार में छोटे चौधरी यानी अजित सिंह नरसिंह राव के कैबिनेट मंत्री थे। 1999 में ये अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार में भी पद हासिल करने में कामयाब रहे। यही नहीं, अपने क्षेत्रीय राजनीतिक कौशल के बखूबी इस्तेमाल से 2012 में मनमोहन सिंह की सरकार में भी मंत्री बने। तृणमूल कांग्रेस 1999 के दौरान राजग सरकार का हिस्सा रही जबकि 2009 में संप्रग सरकार के आखिरी दिनों से पहले तक समर्थन दिया। 1999 में करुनानिधि की द्रमुक राजग सरकार का हिस्सा रही। सत्ता बदलते ही 2004 में यह संप्रग की सहयोगी बनी। संप्रग दो के दौरान भी आखिरी मौके से पहले तक यह सहयोग बदस्तूर जारी रहा। सत्ता की लालच में ये राजनीतिक दल अपनी निष्ठाओं को ताक पर रखकर कभी इससे तो कभी उससे गठजोड़ करते हैं। इनमें से अधिकांश पार्टियां तो गठबंधन का नेतृत्व करने वाले दल के विरोध में चुनाव लड़ती है। 

                                     भारतीय लोकतन्त्र में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है | आज क्षेत्रीय दल बहस के कई मुद्दों को जन्म दे रहे हैं , जिन पर बात करने की बहुत जरूरत है |

Saturday, March 08, 2014

महिला दिवस मुबारक



2011 की जनगणना के अनुसार , भारत की कुल आबादी में 49% महिलाएं हैं | मैं आपको ये क्यों बता रहा हूँ, वो इसलिए अगर इनके विकास, बराबरी पर ध्यान नहीं दिया जाता है तो हम अपना ही, अपने समाज, अपने देश, अपना विश्व का नुकसान कर रहे हैं | कुछ प्रचारों में ये कहा जा रहा है कि ज्यादा लड़कियां, ज्यादा सुरक्षा | मुझे उनके इस प्रचार से समस्या ये है कि ज्यादा लड़कियां होने पर ही सुरक्षा क्यों ? क्या उन्हें सुरक्षा  सिर्फ लड़कियों के बीच ही मिल सकती है | अगर ऐसा  है तो कहीं न कहीं हम गलत समाज की ओर जा रहे हैं और अपनी ज़िम्मेदारी को भूल रहे हैं | 
                                                       16 दिसंबर महिलाओं की सुरक्षा पर लगा वो प्रश्न चिन्ह था जिसने किसी भी तरह के जवाब के बजाय कई तरह के सवालों को जन्म दिया | पहली बात तो ये कि एक खुला वातावरण किसी भी महिला के लिए कहाँ तक सुरक्षित है और दूसरा  बात तो ये कि कब तक महिला उपभोग का साधन समझी जाती रहेगी ? कहने को तो हम मानव सभ्यता के अच्छे शिखर पर पहुंचे हैं , लेकिन मुझे लगता है कि मानवीय संवेदनाओं का विकास अभी भी पाषाणकालीन सभ्यता में ही अटका हुआ है | अगर मनुष्य अपनी संवेदनाओं में इतना पिछड़ा हुआ है तो क्या उसे मनुष्य की संज्ञा देना सही है |
                                                       ये जानते हुए भी कि महिला समाज की हर गतिविधि में भागीदार है फिर भी इस तरह का दुर्व्यवहार या असमानता का व्यवहार मानव समाज की असफलता ही कही जाएगी |  ये चार्ट इस बात की ओर इशारा करता है कि विश्व भर में महिलाओं के अस्तित्व की क्या स्थिति है |

    
                                                  यूं तो संसद में कई बिल लटके हुए हैं और उसमें से सबसे महत्वपूर्ण बिल महिला आरक्षण विधेयक है लेकिन ये बिल संसद में अभी तक पारीत नहीं हुआ है | इसमें सवाल सबसे बड़ा ये उठता है कि जो पार्टियां आरक्षण का समर्थन करती हैं वे सभी पार्टियां महिला आरक्षण विधेयक पर क्यों विरोध जताने लगती हैं | उदाहरण के तौर पर, समाजवादी पार्टी को ही लीजिये, जतियों को आरक्षण दिलाने में हमेशा समर्थन में रहे लेकिन जब बात महिला आरक्षण की आती है इनकी सरीखी पार्टियां विरोध पर उतार आती हैं | आज भारत में सिर्फ 11% महिलाएं संसद में हैं |
                                                  एक घटना मुझे अभी तक याद है | घटना नोएडा सिटी सेंटर की है | मैं और मेरे कुछ मित्र सिटि सेंटर से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे | मेट्रो में अंदर प्रवेश के लिए काफी लंबी लाइन लगी हुई थी | मेरे लिए ताज्जुब की बात उस दिन ये थी जितनी लंबी लाइन पुरुषों की थी उतनी ही लंबी लाइन महिलाओं की भी थी | उसी समय मैंने अपने दोस्त से बोला कि ये महिला सशक्तिकरण है | यहाँ मुझे समानता दिखाई दे रही है | रात को 8:30 बजे पुरुषों के बराबर महिलाएं समाज में एक अच्छे संदेश को प्रेषित कर रही हैं | लेकिन यहाँ एक सवाल ये उठता है कि क्या संख्या को महिला सशक्तिकरण का आधार मान लिया जाए ? इसका उत्तर ये है कि पहले तो महिलाएं इतनी संख्या में बाहर भी नहीं आती थीं लेकिन अब महिलाएं अपने अधिकारों, हक़  के लिए आगें बढ़ रही हैं | पहले से ज्यादा हम जाग्रत हो रहे हैं और एक नए समाज की ओर बढ़ रहे हैं | हालांकि इसमें वक़्त लगेगा लेकिन ये प्रक्रिया शुरू  हो चुकी है | और ये प्रक्रिया शुरू होना ही महिला सशक्तिकरण के लिए एक बड़ा कदम है |
                                                 महिलाओं की समाज में महत्ता की बात की  जाए तो दुनिया में जब हम आतें हैं तभी से महिलाओं की महत्ता बढ़ जाती है | जन्म से लेकर लालन-पोषण तक माँ हमेशा हमारा साथ देती हैं |
                                                 मैं जब छोटा था जब मेरे स्कूल में लड़के-लड़कियों का प्रतिशत बहुत ही असमान था लेकिन जब मैं किरोड़ीमल कॉलेज आया तो यहाँ आकर मैं दंग रह गया | मैंने पहली बार लड़कियों का लगभग समान प्रतिशत देखा , जो कि मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी |         
                                                 महिलाओं के सुरक्षा के मुद्दे का हल जमीनी स्तर पर ही पहल कर के किया जा सकता है | यूं तो हम बड़ी-बड़ी किताबों में ही महिला सुरक्षा या महिला सशक्तिकरण जैसे भारी-भरकम विषयों को पढ़ते हैं लेकिन क्या ये जरूरी नहीं बन जाता कि कम उम्र के बच्चों के पाठ्यक्रम में भी इन संवेदनशील बातों को शामिल किया जाए | पेड़ की जड़ में लगी दीमक से पेड़ खोखला हो जाता है | अगर जड़ मजबूत होगी तो सारा पेड़ फल-फूलकर अपनी सुरक्षा रूपी छाया दे सकेगा |
                                                                                                 
                                                   

Thursday, March 06, 2014

सियासी सीएनजी


सियासी सीएनजी  
                         लोकसभा चुनाव पास आने वाले हैं | चुनावी मौसम आ चुका है | केजरीवाल ने मुकेश अंबानी के खिलाफ गैस के दामों को बढ़ाने को लेकर एफ.आइ.आर. दर्ज कराई थी | जिसके बाद से सीएनजी के दामों को लेकर काफी हंगामा हो रहा है | अरविंद केजरीवाल ने कानपुर रैली में बीजेपी और काँग्रेस पर मुकेश से मिलीभगत करने का आरोप लगाया है | अरविंद केजरीवाल की सरकार ने दिल्ली में सीएनजी के दाम में हुई बढ़ोतरी के खिलाफ कोर्ट में अपील करने का फैसला किया है।  मुख्यमंत्री के प्रतिनिधियों ने इस बढ़ोतरी को 'भेदभावपूर्णकरार देते हुए कहा कि वे इसे खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में केस दायर करेंगे। इस पर पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली का कहना है कि गैस के दाम को निश्चित करने में सभी नियमकायदे और कानूनों का पालन किया गया है | 1 अप्रैल से प्राकत्रिक गैस के दाम बढ्ने वाले हैं | प्राकत्रिक गैस एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन गया है | अप्रैल में गैस के दाम बढ्ने से गैस महंगी हो जाएगी जिसका बोझ आम जनता पर ही पड़ेगा |  
                                                                                        अभी कुछ ही दिन पहले काँग्रेस सरकार ने सीएनजी और पीएनजी के दामों में कटोत्तरी की है |  राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में सीएनजी के दाम 14.90 रुपये प्रति किलो तथा पाइप के जरिए घरों में पहुंचने वाली रसोई गैस की कीमत में रुपये प्रति इकाई की कटौती की गई।  कंप्रेस्ड नेचुरल गैस (सीएनजी) का दाम 35.20 रुपये प्रति किलो होगाजबकि मौजूदा दाम 50.10 रुपये प्रति किलो है। इसी प्रकारपाइप के जरिए घरों में पहुंचने वाली रसोई गैस (पीएनजी) के दाम में रुपये प्रति घन मीटर (क्यूबिक मीटर) की कमी की गई है।
                                                                                              ये छह साल बाद यह पहला मौका है जब ईंधन दरों में कटौती की गयी है |  इससे पहलेमार्च 2008 में उत्पाद शुल्क में कटौती के कारण सीएनजी के दाम में 30 पैसे की कटौती की गई थी। ये राहत अस्थाई हो सकती हैक्योंकि प्राकृतिक गैस के दाम एक अप्रैल से दोगुना होकर से 8.2 डॉलर तक किए जाने वाले हैं। इससे जहां सीएनजी 10.60 रुपये प्रति किलो महंगी हो सकती हैवहीं पीएनजी रुपये प्रति घन मीटर महंगी हो सकती है। केंद्र सरकार की यह राहत अप्रैल, 2014 तक ही रहेगी क्योंकि तब गैस कीमत तय करने का नया फार्मूला लागू होगा। तब सीएनजी की कीमत में फिर 8-10 रुपये की वृद्धि होने के आसार हैं। बहरहाल, सोमवार की कटौती के बाद अप्रैल की वृद्धि की चुभन ज्यादा नहीं रहेगी।
                                                                                             सरकार ने इस फैसले से एक साथ एक तीर से दो राजनीतिक निशाने साधे हैं। एक तो दिल्लीफरीदाबादकानपुरलखनऊमेरठआगरापुणेसोनीपतपानीपतसूरतजयपुरकोटाइंदौरअहमदाबाद जैसे दर्जनों शहरों की जनता को महंगी सीएनजी से राहत मिलेगी। दूसराचुनाव से पहले दिल्ली में सीएनजी कीमत को राजनीतिक मुद्दा बना रही 'आपपार्टी से भी एक हथियार छीन लिया गया है। लेकिन अभी हाल में अरविंद केजरीवाल द्वारा की गयी एफ़आईआर से ये चुनावी मुद्दा भी कहीं कहीं छिनता हुआ दिखाई दे रहा है |
                                                                                       दिल्ली में सीएनजी सस्ती होने के बावजूद नहीं आटो किराया नहीं  घटा है | दिल्ली सरकार ने सीएनजी के दामों में भारी कटौती के बावजूद बस व तिपहिया वाहनों के किरायों में कमी से इनकार किया है। इस पर पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने महंगाई दर के हिसाब से सालाना आधार पर ऑटो किरायों में संशोधन की बात कही है।
                                                                                        लोकसभा चुनाव आने में कुछ ही वक़्त रह गया है | ऐसे में सरकार का ये कहना कि गैस के दाम के लिए अप्रैल से नया फार्मूला लागू होगा और उसके हिसाब से दाम बढ़ाएँ जाएंगे | ऐसे में इस बात की बहुत संभावना है कि गैस के दाम बढ़ जाए और आम आदमी पर मंहगाई का एक और अंबार टूट पड़े | इस समय देश में मंहगाई एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बना हुआ है | गैस में दाम बढ़ोत्तरी काँग्रेस के लिए एक अभिशाप साबित होगा और उसे इसका परिणाम लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ेगा |