Sunday, October 05, 2014

भारतीय जनता : स्वास्थ्य छुआछूत की शिकार

भारतीय जनता : स्वास्थ्य छुआछूत की शिकार



भारत की स्वास्थ्य क्षेत्र में स्थिति बहुत ही खराब है। भारत में इलाज, दवाइयाँ अभी भी कई लोगों की पहुँच से दूर है। ऐसे में आप सोचिए कि अभी आप कैंसर की दवा ग्लीवेक (Glevec) 8500 में खरीद रहे हों और वही दवा के दाम अब 1,08,000 हो जाए, तो आपका तो बजट ही पूरी तरह से गड़बड़ा जाएगा, आप शायद एक बार सोचे कि इलाज कराना नामुमकिन है। भारत में ऐसा कई परिवारों के साथ हो जाएगा।

नरेंद्र मोदी सरकार ने 30 मई, 2013 को एनपीपीए(दवा मूल्य प्राधिकरण, National Pharmaceutical Pricing Authority) को जीवन रक्षक दवाओं के दाम नियंत्रित करने के अधिकार को वापस लेने को कहा है। रसायन और उर्वरक मंत्रालय ने एनपीपीए को जीवन रक्षक दवाओं के दाम नियंत्रित करने का अधिकार दिया था। जीवन रक्षक दवाओं के दाम नियंत्रण मुक्त करने से 108 जीवन रक्षक दवाओं के दाम आम आदमी की जेभ पर बहुत भारी पड़ जाएंगे। इन दवाओं में कैंसर, दमा, एड्स, टीबी, ह्रदय रोग, रक्तचाप, मधुमेह, मलेरिया आदि दवाएं शामिल की गयी थी। यूपीए सरकार ने जीवन रक्षक दवाओं के मूल्य निर्धारण के लिए गाइडलाइन जारी की थी। यूपीए सरकार ने दवा कीमत नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 2013 को अधिसूचित कर दिया था। नए आदेश के तहत, एनपीपीए को जीवन रक्षक दवाओं के नियमन का अधिकार मिल गया था।

मोदी सरकार के इस आदेश से भारत ही नहीं, भारत पर निर्भर कई अफ्रीकन देशों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। भारत में मधुमेह (डाईबिटीज़) के 4.1 करोड़ मरीज, 4.7 करोड़ ह्रदय रोग के मरीज, 22 लाख ट्यूबरकुलोसिस (टी.बी.) के मरीज, कैंसर के 11 लाख मरीज, एड्स के 25 लाख मरीज, मलेरिया के मरीज 9.75 लाख हैं।  

मोदी सरकार का यह निर्णय किसी भी तरह से समझ नहीं आ रहा है। एक तरफ मोदी सरकार कहती है कि गरीबों के हितों के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा। गरीबी दूर करना सरकार की प्राथमिकता है, ऐसा सरकार का कहना है। यदि वास्तव में सरकार गरीबी दूर करना चाहती है, देश को विकसित करना चाहती है तो उसके लिए लोगों को उचित स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हों, उचित दामों पर दवाइयाँ उपलब्ध हों, ये हर सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। गरीबी तभी दूर होगी, जब लोगों के स्वास्थ्य में सुधार आएगा। कहा भी गया है कि जिस देश में लोग जितने ज्यादा स्वस्थ्य होंगे, वह देश उतने ही जल्दी विकास करेगा।

ऐसे में मोदी सरकार के इस निर्णय पर काफी सवाल उठ रहे हैं कि आखिरकार मोदी सरकार को जीवन रक्षक दवाइयों के मूल्य को नियंत्रण मुक्त क्यों करना पड़ा? मोदी सरकार की इसके पीछे क्या मंशा रही होगी? एनपीपीए (दवा मूल्य प्राधिकरण) के अधिकार को सीमित करने का अधिकार का आदेश 22 सितंबर, 2014  को आया था, जो कि मोदी की अमेरिका यात्रा के मात्र तीन पहले ही आया था। ऐसे में काँग्रेस बीजेपी के ऊपर बड़ी-बड़ी दवाई कंपनियों को लाभ पहुँचाने का आरोप लगा रही है। उनके इस आरोप में क्या वास्तव में सच्चाई है? क्या वास्तव में मोदी दवाई कंपनियों के लिए लाल कार्पेट बिछाना चाहते हैं या फिर अमेरकी कंपनियों का भारत के ऊपर दवाई उद्योग को लेकर बढ़ता दवाब है? क्या सरकार के इस कदम के पीछे  बड़ी दावा कंपनियों का हाथ है? इन सब सवालों की तह तक जाने के लिए हमें 1 अप्रैल, 2013 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा नोवर्टिस कंपनी के लिए सुनाये गए ऐतिहासिक फैसले को गौर से पढ़ना होगा और उस समय दवा कंपनियों की मांग को समझना होगा। उस समय कई बड़ी दवा कंपनियों ने आरोप लगाया था कि भारत में दवा के क्षेत्र में निवेश करना अब मुश्किल होगा। ऐसे में भारत सरकार के ऊपर लगातार विश्व स्वास्थ्य संगठन से भी दवाब बन रहा था कि इन नियमों में ढील दी जाए। एक महत्त्वपूर्ण बात ये भी है कि अधिकतर बड़ी–बड़ी दवा कंपनियों के मुख्यालय अमेरिका में ही स्थित हैं। ऐसे में इस तर्क की और भी पुष्टि हो जाती है कि अमेरिकी दवा कंपनियों का लगातार दवाब बढ़ता जा रहा था। सरकार के इस कदम के पीछे निश्चय ही बड़ी दवा कंपनियों का हाथ है। निश्चित ही, बड़ी  दवा कंपनियाँ सरकार के इस फैसले से बहुत खुश हैं। दवा कंपनियों का तर्क है कि मुक्त बाज़ार में कोई दवा का मूल्य निर्धारण कैसे कर सकता है? यदि उनके इस तर्क को मान भी लिया जाए तो भी एक नियंत्रण बोर्ड की सख्त जरूरत है। दवा कंपनियाँ अपने मुनाफे के हिसाब से काम कर रही हैं। ऐसे में कई बार ये संभावनाएं हो जाती हैं कि दवा कंपनियों ने आपस में ही किसी दवा के दाम निश्चित कर लिए हों, तो ऐसे में एनपीपीए (दवा मूल्य प्राधिकरण) की और भी सख्त जरूरत हो जाती है। मोदी सरकार लाल फीताशाही से हटकर लाल कार्पेट तक जाना चाहती है, लेकिन किसके हितों की बलि चढ़ाकर? यह सवाल बहुत गंभीर है। योजना आयोग के उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह की सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र की रिपोर्ट कहती है कि भारत का विविधतापूर्ण घरेलू जेनरिक उद्योग बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधिग्रहण के कारण बहुत अधिक खतरे में है।

अगर इस निर्णय के प्रभाव की बात करें तो जनता पर इसका सामाजिक, आर्थिक रूप से बहुत अधिक प्रभाव पड़ेगा। एक साधारण सा नियम है कि जब भी घर में कोई मलेरिया, कैंसर, टीबी, एड्स, डाईबिटीज़ से पीड़ित होता है तो उसका प्रभाव आर्थिक रूप से पूरे परिवार पर पड़ता है। ऐसे में दवा के आसमान छूते दाम ऐसे परिवारों की हालत और भी खराब करेंगे। ऐसे में मुझे लगता है कि देश की करीब 80% जनता स्वास्थ्य छुआछूत का शिकार होगी। इस छुआछूत के कारण कई परिवार खत्म भी होंगे। जीवन रक्षक जैसी महत्त्वपूर्ण दवाओं के नियंत्रणमुक्त करने से नतीजा ये होगा कि ये दवाएं गंभीर बीमारियों के शिकार मरीजों की पहुँच से बाहर हो जाएंगी।

दवाओं के दाम बढ़े हुए इस निर्णय के बाद लगभग ये हो सकते हैं!
सरकार के निर्णय के बाद दवा के  बढ़े हुए दाम





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