Saturday, April 08, 2017

सूफी संत 'बख्तियार काकी' दरगाह की दास्तां-महरौली

सूफी संत कुतुबद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह
बख्तियार काकी की दरगाह
फोटो साभार-विकिपीडिया
ऐसा माना जाता है कि  कुतुब साहब और इंसानियत के बीच रिश्ता दर्द का था। वे जब भी क़ुतुब साहब ध्यान लगाते थे तो वे खाना-पीना भूल जाते थे। काकी साहब खुरासन और बगदाद के रास्ते से होकर भारत पहुँचे थे। वर्तमान समय में ये जगहें ईरान में हैं। उन्होंने अपने मुर्शीद (गुरु) मोइनुद्दीन चिश्ती के कहने पर ही दिल्ली में रहने का फैसला किया था। हिंदुस्तान में सूफ़ियों के चिश्तिया सिलसिले की बुनियाद रखने वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के ख़लीफा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ने तेरहवीं सदी की शुरुआत में महरौली को अपना डेरा बनाया था। चिश्ती सिलसिले में इनकी बहुत ऊँची जगह है। वे इल्तुतमिश के समय में रहे थे और 1236 में उनका निधन हो गया था।



कौन थे सूफी संत कुतुबद्दीन बख्तियार काकी? 



दिल्ली और सूफ़ी फ़लसफ़े का रिश्ता तकरीबन आठ सदी पुराना है। क़ुतुबुद्दीन बख्तियार का जन्म 1173 में मौजूदा तुर्कमेनिस्तान के औश में हुआ था। वह खुरासन और बगदाद के रास्ते से होकर भारत पहुँचे थे। वर्तमान समय में ये जगहें ईरान में हैं। उन्होंने अपने मुर्शीद (गुरु) मोइनुद्दीन चिश्ती के कहने पर ही दिल्ली में रहने का फैसला किया था। हिंदुस्तान में सूफ़ियों के चिश्तिया सिलसिले की बुनियाद रखने वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के ख़लीफा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ने तेरहवीं सदी की शुरुआत में महरौली को अपना डेरा बनाया था। चिश्ती सिलसिले में इनकी बहुत ऊँची जगह है। वे इल्तुतमिश के समय में रहे थे और 1236 में उनका निधन हो गया था। 

ऐसा कहा जाता है कि ख्वाजा चिश्ती ने उनको यह दिकरी दी थी कि जो कोई भी उनको चादर चढ़ाने जाएगा वे पहले काकी की सेवा में हाज़िर हों और यहाँ नज़राना देकर जाएँ। इसके अलावा, जो लोग हज यात्रा से लौटकर आते हैं वे भी यहाँ नज़राना देने यहाँ आते हैं। इसलिए यह स्थल बहुत ही पवित्र सूफी स्थल के तौर पर माना जाता है।


कुतुबद्दीन बख्तियार के नाम में काकी शब्द कैसे जुड़ा? 



ऐसा माना जाता है कि  कुतुब साहब और इंसानियत के बीच रिश्ता दर्द का था। वे जब भी क़ुतुब साहब ध्यान लगाते थे तो वे खाना-पीना भूल जाते थे।  वे दिन-रात आंखें बंद किए इंसानों के लिए ज़िक्र में डूबे रहते थे। अगर उनके पास कोई मुलाकाती आता तो उनकी आंखें खुलतीं मगर फिर वे अपनी दुनिया में लौट जाते। जब उन्हें भूख लगती तो काक (एक तरह की रोटी) के कुछ निवाले मुंह में डाल ठंडा पानी पी लेते थे। इसी वजह से, उनके नाम के साथ 'काकी' जुड़ गया था।

इसकी एक दूसरी कहानी भी है इसके पीछे। क़ुतुब साहिब और उनकी बेगम यहाँ रहती थीं और पास में एक लोग थे, जिनके यहाँ से इनके लिए रोटियां आती थीं। बहुत दिनों तक रोटी आने का यह सिलसिला चलता रहा और क़ुतुब साहब को इसके बारे में कुछ भी पता नहीं चला। एक दिन क़ुतुब साहब ने पूंछा कि रोटियां कहाँ से आती हैं तो उस दिन उन्हें रोटी आने के स्रोत का पता चला। उन्होंने उस व्यक्ति से रोटी ना लेने के लिए बेगम को कहा। बेगम ने कहा कि फिर रोटियां कहाँ से आएंगी? तो क़ुतुब साहब ने कल से तुम जब घर के कोनों में गुहारोगी तो वहां से रोटियां निकल आएंगी। इसलिए कहा जाता है कि ये रोटियां जन्नत से आती थीं। इसलिए उनके नाम में काकी शब्द जुड़ गया।


क़ुतुब साहब को सादगी बहुत पसंद थी

क़ुतुब साहब को सादगी बहुत पसंद थी। उनकी कब्र शुरुआत में मिट्टी की बनी हुई थी। और उन्हें यह बिलकुल भी पसंद नहीं था कि उन पर बहुत ज़्यादा चढ़ावा चढ़े। इस कारण से यहां बहुत शांति थी। सूफी संतों की यह विशेषता रही है कि वे सादगी पसंद इंसान होते थे।

इसके अलावा, क़ुतुब साहब को संगीत बहुत पसंद था और उनका यह मानना था कि संगीत के ज़रिए अल्लाह से जुड़ा जा सकता है। यह परंपरा अभी भी चली आ रही है क्योंकि यहाँ शाम को अगर आप पहुंचेगें तो आज भी लोग कव्वाली गाते हुए मिल जाएंगे।


यहाँ लुहारु नबावों की भी कब्रें हैं

लुहारु अब इस समय भिवानी में है जो हरियाणा में पड़ता है। इसका नाम लुहारु इसलिए पड़ा क्योंकि यहाँ सिक्के ढालने वाले लोग रहते थे। साधारण भाषा में कहें, तो लुहार समुदाय के लोग यहाँ रहते थे। अंग्रेजों ने एक व्यक्ति खुदा बख्श को लुहारू की रियासत सौंपी थी। खुदा बख्श के बेटे नबाव समसुद्दीन, जो बाद में काफी प्रसिद्द हुए। उनके पास दो रियासतें थीं। एक लुहारू और दूसरा फ़िरोज़पुर ज़िरका। लेकिन इसके बाद समसुद्दीन के भाइयों ने कहा कि इन रियासतों में उनका भी हिस्सा होना चाहिए। तो उस समय अंग्रेज़ बहुत शक्तिशाली हो चुके थे और उन्होंने समसुद्दीन के भाइयों का साथ दिया। और बाद में अंग्रेजों ने उनको फांसी दे दी।


क़ुतुब साहब के पास उनकी बेगम की भी कब्र है। इसके अलावा, आस-पास कई विशेष लोगों की कब्रें हैं जिनका एक विशेष दर्ज़ा था। काकी के पास दफ़न होने का मतलब यह है कि अगर आप किसी बड़े संत के पास दफ़न हैं तो आपके जीवन के लेखा-जोखा के समय आपके लिए यह एक पुण्य की बात मानी जाती है।

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