निर्माता : साभिया सुमर
निर्देशन : साभिया सुमर
कहानी लेखक : परोमिता वोहरा
संगीत : मदन गोपाल सिंह, अरशद महमूद और अर्जुन सेन
कलाकार : किरण खेर, शिल्पा शुक्ला, आमिर मलिक
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए 105 मिनट
रेटिंग 4.5/5
आज Cine मंच द्वारा खामोश पानी को दिखाया गया | ऐसी फिल्मों को देखकर मन में यही सवाल उठता है कि ऐसी फिल्में एक बड़े समूह तक क्यों नहीं पहुँच पाती ??? एक बात तो पूर्णतया सत्य है कि फिल्में हमारी विचारधारा और मानसिकता पर किसी और अन्य माध्यम से ज्यादा अच्छे तरीके से प्रहार करती हैं | इसीलिए शायद अभी सेंसरशिप भारत सरकार द्वारा गठित सेंसरशिप बोर्ड द्वारा सिर्फ इसी कारण से फिल्मों पर की जा रही है | अगर फिल्म की बात की जाए तो यह फिल्म मुख्यता धर्म, धर्म के नियम, कायदे और कानून किसने बनाए हैं, इस बात पर सोचने को मजबूर करता है | और किस तरह धर्म के नाम पर निर्दोष नवयुवकों को सही रास्ते से गलत रास्ते पर धकेल दिया जाता
है | दुनिया को एक अलग नज़रिये से देखने की जरूरत है | अभी तक हमने दुनिया को सिर्फ एक नज़रिये से देखा है और वह नज़रिया है पित्रसत्तात्मक तरीका | किस तरह धर्म के नाम पर और उस धर्म की इज्जत के नाम पर हमेशा स्त्रियों को बलिदान देना पड़ता है | इस फिल्म में भी इस बात को बखूबी दिखाया गया है |
अगर बात करें फिल्म के अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की, तो सभी ने दमदार और एक प्रभाव छोड़ देने वाला अभिनय किया है | सलीम, आएशा का लड़का जो कि शुरूआत में बहुत सामन्य तरीके से ज़िंदगी व्यतीत कर रहा होता है | वह अपनी माँ, अपनी मित्र सबसे अच्छे तरीके से व्यवहार कर रहा होता है | अचानक उसके गाँव में दो कट्टरपंथी विचारधारा वाले दो व्यक्ति आते हैं | और वे गाँव में सभी भोले भले लोगों का brain wash करना शुरू कर देते हैं | जिन लोगों की अभी नौकरी नहीं लगी है, जिन्हें धर्म के बारे में कुछ पता नहीं है, उन लोगों को बंदूक धमा दी जाती है | क्यों??? अमीन साहब जो कि पोस्टमैन होते हैं वे भी अपनी पत्नी को साफ-साफ मना कर देते हैं कि आएशा को उनकी बेटी की शादी मैन आने की जरूरत नहीं है | जबकि उसकी पत्नी आएशा को अपनी बहन समान मानती है | लेकिन समाज के बनाए गए नियम,कायदे-कानून के आगें वे भी वेवश नज़र आतें हैं | कहानी आगें बढ़ती है और सिक्ख समुदाय पाकिस्तान ननसाहेब के दर्शन के लिए आतें हैं और वहाँ उनका विरोध वही कट्टरपंथी विचारधारा वाले लोग विरोध कर रहे होते हैं वो भी तलवार लाठी लेकर | यहाँ एक सवाल उठता है कि प्रशासन इस समय कहाँ रहता है ? अभी हाल-फिलहाल में मुज्जफरनगर घटना में भी यही हुआ था | लोगों को धर्म के आधार पर बाँट कर दंगे करवाए गए थे | राजनीति में धर्म के नाम पर लड़ाया जाता है |
अंत में बस एक ही बात कहना चाहूँगा कि इस तरह की फिल्मों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाए | सभी लोग इसके लिए काम करें |
है | दुनिया को एक अलग नज़रिये से देखने की जरूरत है | अभी तक हमने दुनिया को सिर्फ एक नज़रिये से देखा है और वह नज़रिया है पित्रसत्तात्मक तरीका | किस तरह धर्म के नाम पर और उस धर्म की इज्जत के नाम पर हमेशा स्त्रियों को बलिदान देना पड़ता है | इस फिल्म में भी इस बात को बखूबी दिखाया गया है |
अगर बात करें फिल्म के अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की, तो सभी ने दमदार और एक प्रभाव छोड़ देने वाला अभिनय किया है | सलीम, आएशा का लड़का जो कि शुरूआत में बहुत सामन्य तरीके से ज़िंदगी व्यतीत कर रहा होता है | वह अपनी माँ, अपनी मित्र सबसे अच्छे तरीके से व्यवहार कर रहा होता है | अचानक उसके गाँव में दो कट्टरपंथी विचारधारा वाले दो व्यक्ति आते हैं | और वे गाँव में सभी भोले भले लोगों का brain wash करना शुरू कर देते हैं | जिन लोगों की अभी नौकरी नहीं लगी है, जिन्हें धर्म के बारे में कुछ पता नहीं है, उन लोगों को बंदूक धमा दी जाती है | क्यों??? अमीन साहब जो कि पोस्टमैन होते हैं वे भी अपनी पत्नी को साफ-साफ मना कर देते हैं कि आएशा को उनकी बेटी की शादी मैन आने की जरूरत नहीं है | जबकि उसकी पत्नी आएशा को अपनी बहन समान मानती है | लेकिन समाज के बनाए गए नियम,कायदे-कानून के आगें वे भी वेवश नज़र आतें हैं | कहानी आगें बढ़ती है और सिक्ख समुदाय पाकिस्तान ननसाहेब के दर्शन के लिए आतें हैं और वहाँ उनका विरोध वही कट्टरपंथी विचारधारा वाले लोग विरोध कर रहे होते हैं वो भी तलवार लाठी लेकर | यहाँ एक सवाल उठता है कि प्रशासन इस समय कहाँ रहता है ? अभी हाल-फिलहाल में मुज्जफरनगर घटना में भी यही हुआ था | लोगों को धर्म के आधार पर बाँट कर दंगे करवाए गए थे | राजनीति में धर्म के नाम पर लड़ाया जाता है |
अंत में बस एक ही बात कहना चाहूँगा कि इस तरह की फिल्मों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाए | सभी लोग इसके लिए काम करें |
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