Monday, December 30, 2013

थियेटर : एक बड़ी चुनौती

थियेटर : एक बड़ी चुनौती

थियेटर  करना कोई आसान बात नहीं है | अगर मेरे जैसे इंसान की बात की जाए तो मेरे लिए थियेटर करना किले पर फतेह करने  के समान जैसा है | मेरे लिए साल 2013 की बड़ी उपलब्धियों में से एक है  थियेटर करना | मैंने स्नातक की पढ़ाई में पढ़ा था कि थियेटर वास्तव में समाज की वास्तविकता का दर्पण होता है | मैंने कॉलेज में थियेटर में कोई प्रतिभागिता नहीं की, क्योंकि उस समय मेरे दिमाग में एक बात बैठी हुई थी कि थियेटर बहुत समय मांगता है और सच्चाई भी बिलकुल यही थी | मैंने छात्रावास में रहकर ये सब देख लिया था कि थियेटर में जितने भी लोग हैं वे पूरी-पूरी रात नाटक के लिए अभ्यास करते रहते हैं |  कॉलेज की लाइफ तो बिना थियेटर के निकल गयी | मैं उतना समय थियेटर के लिए नहीं दे सकता था | समय की मांग कुछ ऐसी थी और ऊपर से अभी तक की विद्यालय की शिक्षा की  परवरिश ऐसी थी जहां अभी तक सिर्फ ये सिखाया गया था कि पढ़ाई में अच्छे नंबर कैसे लाने हैं | पढ़ाई का मतलब अभी तक मेरे लिए यही था कि अच्छे नंबर लाने हैं, ताकि सभी लोग खुश रहे | ये पक्ष भी एक नजरिए से ठीक है लेकिन पढ़ाई का मतलब सिर्फ यही नहीं है | अगर अतिरिक्त गतिविधियों की बात की जाए तो इस मामले में मैं बिलकुल शून्य था उस समय तक |
 
                                   थियेटर है क्या ? थियेटर तो कई लोग करते हैं लेकिन सफल तरीके से थियेटर करना क्या है ? आर्टिस्ट और स्टार क्या हैं ? उस समय तो ये सब सवाल दिमाग में आते भी नहीं थे | मैं विद्यालय से निकलकर कॉलेज आ गया जहां मेरी बुद्धि के बंद दरवाजे खुले | हालांकि यह सब संभव होने में काफी समय लगा | एक तरह से कहिए तो मुझे कॉलेज के दूसरे साल के अंत में ये बात समझ आयी थी | मैंने कॉलेज में सोचा कि थियेटर कर लूँ लेकिन फिर से वही सवाल मन में उठने लगता कि यार, समय नहीं  है | कॉलेज बिना थियेटर के बीत गया | 
                                       मैं कॉलेज से निकलने के बाद आईआईएमसी पहुंचा जहां मैंने थियेटर करना शुरू कर दिया | मैं इप्टा जेएनयू से जुड़ा | यहीं से मेरा थियेटर सफर शुरू हुआ | मुझे इप्टा जेएनयू समूह से जुड़े हुए अभी एक साल भी नहीं हुआ है लेकिन इतने कम दिनों में मैंने बहुत कुछ सीख लिया है | अगर मेरे हमउम्र साथियों की थियेटर के मामले में बात की जाए तो वे सभी मुझसे बहुत-बहुत आगें हैं  और उन सभी से मैंने बहुत कुछ सीखा है | कुछ थियेटर की बातें और कुछ थियेटर से इतर | अगर बाक़ी ज्येष्ठ लोगों की बात की जाए तो उन सभी ने मुझे बहुत सिखाया है और ये सभी लोग मुझसे बहुत आगें हैं |  मुझे अभी भी याद है कि जब मैंने पहली बार जुलूस देखा था तो मैं दंग रह गया था | मुझे वो नाटक बहुत पसंद आया था | मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली बार किसी नाटक की समीक्षा लिखी थी | मैं भी इप्टा में शामिल हो चुका था | मैंने भी थियेटर में अभ्यास करना शुरू कर दिया | इसके लिए इप्टा जेएनयू समूह मेरे लिए गुरु के समान बन कर आया | वहाँ सभी लोग कुछ अलग ही हैं | मुझे अभी भी याद है कि इप्टा के पहले दिन मुझसे 5 मिनट खुद के बारे में बोलने के लिए किरण भैया ने बोला था | फिर उसके बाद शुरुआत हुई थियेटर के सफ़र की | जुलूस नाटक जेएनयू में होने के बाद दोबारा कपूरथला में होना था | मैं भी इस नाटक की टीम में शामिल हो गया | मुझे इस बीच बोलने की और भी कई तरह की एक्सरसाइज़ कराई गईं | मुझे जुलूस नाटक में अभिनय करने का मौका मिला और मैं कपूरथला में नाटक के मंचन के लिए गया | हालांकि इस बीच मैं थियेटर के लिए ज्यादा अभ्यास नहीं कर पाया था क्योंकि नाटक के लिए समय बहुत कम मिला था | जुलूस मेरा पहला स्ट्रीट प्ले  था | मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मैं सही तरीके से उसे नहीं कर पाया | मेरे चेहरे पर भावाभिव्यक्ति की बात की जाए तो इस मामले में मैं बहुत बुरा हूँ | पता नहीं क्यों मेरे चेहरे पर भाव जल्दी नहीं आ पाते हैं | कपूरथला में प्ले करने के पश्चात् हम वापस दिल्ली लौटे | मैंने फिर घर आकर अपने सारे छायाचित्र (photos) देखे और अधिकतर छायाचित्रों में मेरे चेहरे से भाव गायब थे | कुछ छायाचित्रों में चेहरे पर स्पष्ट भाव दिखाई दे रहे थे |  ये मेरे लिए पहली बड़ी उपलब्धि थी कि मेरे चेहरे पर भाव दिखलाई देने लगे |

                                    
जुलूस नाटक खत्म होने के बाद चार्वाक नाटक के मंचन का अभ्यास शुरू हुआ | सच कहूँ तो इसी नाटक के अभ्यास के दौरान मुझे पता चला कि थियेटर वास्तव में क्या होता है, थियेटर करना कितना कठिन काम होता है  और आर्टिस्ट क्या होते हैं ? चार्वाक नाटक का अभ्यास पहले तो सिर्फ शनिवार और रविवार को होता था लेकिन उसके बाद लगभग सभी दिन अभ्यास करने आना पड़ता था | दीपावली के बाद से यही नियम हो गया था | मैंने इस बीच अपनी सबसे बड़ी गलती को सुधारा | वह गलती थी स, श और ष के उच्चारण की | थियेटर में वाइस मॉड्युलेशन की एक्सरसाइज़ होती थी | इस अभ्यास के कारण ही मेरा उच्चारण अब बिलकुल सुधर गया है | इस गलती को सुधारने का मौका मुझे इप्टा में जुडने के बाद ही मिला | दूसरी सबसे बड़ी बात,  अभ्यास के लिए आने पर मैं प्रतिदिन कसरत कर लेता था और मुझे व्यक्तिगत तौर पर शांति मिलती थी | आईआईएमसी में क्लास खत्म होने के बाद थोड़ी देर रुककर आईआईएमसी में सीधे टेफ़्लास पहुंचता था | इस समय नाटक के निर्देशन का जिम्मा मनीष भैया के कंधों पर था | मुझे ऐसा लगता है कि यदि किसी काम के लिए किसी से डांट पड़े तो वो काम ज्यादा अच्छे से होता है | मैं चार्वाक नाटक के अभ्यास को कभी नहीं भूल सकता हूँ खासकर इस नाटक के शिष्य वाले द्रश्य के लिए मेरे द्वारा किया गया अभ्यास | मैंने पहली बार लगातार एक से डेढ़ घंटे इस द्रश्य के लिए अभ्यास किया लेकिन मुझसे ये नहीं हो पाया | मैं तो उस दिन बिलकुल रो गया था | मन कर रहा था कि नाटक-वाटक छोड़ो और आईआईएमसी में ही कुछ करो | लेकिन दिल को ये सब मंजूर कहाँ था ? मन कह रहा था कि नाटक-वाटक छोड़ो और दिल कह रहा था कोई बात नहीं, सीखने को तो बहुत कुछ मिल रहा है | दिल और मन के इस द्वंद में जीत दिल की हुई | इस बीच मैंने एक दिन मनीष भैया से जवाब-तलब कर लिया था | मुझे बाद में महसूस हुआ कि गलती मेरी ही थी | मैंने बाद में भैया से ये बात बोली भी | अब शिष्य का रोल हट के मुझे वैदिक मुनि का रोल मिला, उसके लिए भी मेहनत की अपने अनुसार लेकिन वो मेहनत भी कम थी | जैसा की मैंने ऊपर  भी लिखा है कि थियेटर बहुत समय मांगता है और मेरे जैसे व्यक्तियों के लिए तो और भी समय लगता है | कास्टिंग अभी तक निश्चित नहीं हुई थी लेकिन इस समयावधि में मुझे काफी कुछ समझ आ गया था | अंत में मुझे चार्वाक नाटक में जैन मुनि का रोल मिला | अभ्यास के दौरान पता चला कि खड़े होते वक़्त मेरे दोनों पैर समान नहीं होते हैं | एक के ऊपर ज्यादा वजन और एक के ऊपर कम | हाथ मेरे आधे ही खुलते हैं | बॉडी मेरी ढीली नहीं रहती है | ये सभी बातें थियेटर से ही पता चली | चार्वाक नाटक का रायगढ़ में मंचन करने का समय निकट आता जा रहा था | हम लोग रायगढ़ 26 दिसंबर को पहुंचे और मैंने 27 को पहली बार वास्तव में स्टेज प्ले किया | मैं प्ले करने के बाद इस बात से खुश था कि मैंने पहला प्ले कर लिया | सफल तरीके से थियेटर करना क्या होता है ? इसका उत्तर यही है कि जब आप थियेटर करते हैं और दर्शक आपको प्रतिक्रिया देते हैं, तो आपका नाटक सफल है और आप भी सफल हैं | अगर मेरे बारे में बात की जाए तो मैं इस मामले में अभी थोड़ा ही सफल हुआ हूँ | आर्टिस्ट क्या होते हैं ? आर्टिस्ट बहुत ही विनम्र स्वभाव के होते हैं, उनमें किसी भी प्रकार का कोई घमंड नहीं होता है | वे काम करने में विश्वास रखते हैं, ना कि दिखावे में | यही आर्टिस्ट की सबसे बड़ी खासियत है

No comments:

Post a Comment