Monday, December 09, 2013

साक्षात्कार: विनोद जी से “थिएटर की महत्ता”

सबसे पहले तो इस साक्षात्कार के लिए विनोद जी का बहुत बहुत शुक्रिया, जिन्होंने मुझे समय दिया | साक्षात्कार के दौरान पूछे गए प्रश्नों के लिए मोनालिसा को बहुत बहुत धन्यवाद, जिन्होंने मेरी सहायता की :)

साक्षात्कार: विनोद जी से “थिएटर की महत्ता”

“नाटक का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन करना है, मैं ऐसा नहीं मानता हूँ | लोग मरने के बाद स्टार बन जाते हैं, बहुत बड़े व्यक्तित्व बन जाते हैं | हंगल साहब हैं आपटे साहब हैं, जब तक ज़िंदा रहे लोगों ने उनको कभी उस तरह की अहमियत नहीं दी | जो लाखों, करोड़ों का इनवेस्टमेंट कर बड़े थियेटर हाल में अपने चकाचौंध रोशनी के बीच मे, हाइ डेसीबिल साउंड के बीच में नाटक करता है उसको हम स्टार समझते हैं | हमें स्टार की परिभाषा को फिर से देखने की जरूरत है दूसरा मुझे लगता है आज भी हमारे स्टार गाँव में, देहात में, जंगलों में मौजूद हैं |”
                                       
                    यह कहना है विनोद कोष्ठी जी का, जो कि इप्टा थियेटर समूह, दिल्ली में 1998 से जुड़े हुए हैं , जो की अभी तक लगभग कई  नाटक में सक्रिय भूमिका निभा चुकें हैं और अभी भी चार्वाक नाटक में काम कर रहे हैं | सांस्कृतिक माध्यमों से आम आदमी तक जुड़ाव के मकसद से बने इप्टा ने सात दशक पूरे कर लिए | भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक इकाई भारतीय जन नाट्य मंच यानि इप्टा ने 25 मई 1943 को मुंबई में आकार लिया | इन 70 सालों में इप्टा ने आम आदमी के मानस को झकझोरा और सामाजिक सरोकारों से जोड़ा | नुक्कड़ नाटकों से लेकर मुंबई, कोलकाता, दिल्ली और लखनऊ से लंदन तक के सुसज्जित ऑडीटोरिमों में अपने नाटकों से नसों में आवेश भर देने वाले इप्टा के नाटकों का लोहा सभी ने माना | विनोद जी इस समय रोज़ा-लक्ज़मबर्ग स्टीफतुंग( Rosa-Luxemburg-Stiftung) में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं | इन्होंने अपनी पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पूरी की है | इसके अलावा ये शोध करने के लिए विदेश भी गए | अभी भी थियेटर के लिए समर्पण भावना इतनी है कि जॉब से खाली समय मिलते ही थियेटर में ही समय बिताना पसंद करते हैं |
                    इप्टा थियेटर समूह से जुड़ाव के बारे में वे कहते हैं कि जब मैं पढ़ाई के सिलसिले में जेएनयू आया तो जेएनयू में आने के साथ साथ यहाँ के संसक्रति, परंपरा से मेरा परिचय हुआ और उस समय मेरी दोस्ती ऐसे दोस्तों से हुई जो छात्र संगठन में काफी सक्रिय थे | कल्चर को लेकर, थियेटर को लेकर जो एक राजनीतिक द्रष्टिकोण है उसका भी परिचय जेएनयू में ही हुआ | जेएनयू में आने के बाद इप्टा उस समय सक्रिय था, तो मुझे लगा कि मैं कल्चरी एक ज्यादा अच्छे और बेहतर ढंग से अपनी बात को लोगों के बीच रख सकूँ | इसलिए मैं थियेटर से जुड़ा |
                    थियेटर से जुड़े रहने पर अपनी कठिनाईयों के बारे में बहुत ही सरल तरीके से हँसते हुए बताते कहते हैं कि यहाँ पर दिल्ली में मैं अकेला ही रहता था तो आम तौर पर परिवार वाली कोई समस्या नहीं थी | लेकिन कुछ किस्से हैं जिन्हें मैं यहाँ बताना चाहूँगा | एक बार अभ्यास के दौरान मेरी दीदी और जीजा जी मुझसे मिलने के लिए आतें हैं | वे दो दिन के लिए मेरे पास आते हैं और उस दो दिन में ऐसी स्थिति रहती है कि हमें शो करना होता है, हमें नाटक की तैयारी बहुत कमजोर रहती है | इत्तेफ़ाक से मैं यह निर्णय नहीं ले पाता हूँ कि मैं बहन के पास समय बिताऊँ या थियेटर का अभ्यास करूँ | मेरे दिल में जो आया सो मैंने किया और मैंने थियेटर का अभ्यास किया और उसका नतीजा मुझे अगले तीन महीने तक भुगतना पड़ा | दीदी ने मुझसे बात नहीं की | कई बार अभ्यास के लिए 10-10 12-12 घंटे भी बिताना पड़ता था | सिर्फ बेहतर प्रदर्शन के लिए | आपको पारिवारिक, निज़ी ज़िंदगी का परित्याग करना पड़ता है |
                      उन्होंने थियेटर के लिए अपना रोल मॉडल बहुत ही सटीक बताया | अधिकतर सभी लोग अपना रोल मॉडल किसी न किसी बड़े कलाकार को मानते हैं लेकिन उनका जवाब था “एक आम इंसान है जो गरीब है जिसके पास शिक्षा के साधन नहीं हैं, जिसकी सोच बहुत विकसित है | वो हमेशा से मेरे लिए रोल मॉडल रहे हैं |” जब भी मैं नाटक करूँ तो क्या मैं मेरे एक्ट के जरिये, संवाद के जरिये उससे जुड़ पा रहा हूँ कि नहीं |
                      थियेटर बातों को पहुंचाने का एक प्रभावी माध्यम है लेकिन भारत क्या सम्पूर्ण विश्व में इस माध्यम का प्रभाव कम होता जा रहा है | इसके कई कारण हैं | थियेटर का बाज़ारीकरण कर दिया गया है | नाटक सामाजिक मुद्दों से भटककर बाजारी मुद्दे पर होते जा रहे हैं | नाटक की मूलभावना है कि लोगों से जुड़ना और संवाद स्थापित करना लेकिन यही मूलभावना का ह्रास होता जा रहा है | पूंजीवाद के पनपने के कारण लोगों के पास साधन सीमित हो गए हैं | जो हथियार लोगों के पास थे आज वे पूंजीवादी संस्थाओं के पास हैं |
                         दर्शकों की प्रतिक्रिया पर कहते हैं कि कई बार नाटक किस वक़्त रैली में तब्दील हो गया, ये पता ही नहीं चला | लोग आपके साथ चलते रहे, आपने उनके साथ उनकी कई दूरी तय कर ली | एक नाटक “बाइज्जत बारी किया जाएगा “ के अंत में सारे आर्टिस्ट मंच से बाहर निकल आए और करीब चार मिनट तक दर्शक वहीं पर खड़े रहे | ना कोई ताली, ना कोई चहल-पहल | उस नाटक के कारण इतना मजबूत संदेश होता है कि दर्शक वहाँ से हिलते नहीं हैं और मजबूरन हमें साइट पर दोबारा जाना पड़ता है | और एक प्रतिक्रिया मुंबई में यह रही कि एक 22 मिनट के नाटक में शुरुआती 5 मिनट में सिर्फ 4 ही दर्शक बचें और वो भी अपने में ही बात कर रहे थे | सिर्फ एक कुत्ता हमारी तरफ पूंछ हिलाते हुए देख रहा था | एक चाय वाला हमें दूर से झांक रहा था | हम लोगों ने नाटक जारी रखा कि शायद कोई जुड़े आकार लेकिन उस दिन एक सीख मिली “नाटक करना आसान काम नहीं है और लोगों   को नाटक के साथ जोड़ना आसान नहीं है |
                            थियेटर करियर के रूप में मेरे लिए कहीं भी नहीं खड़ा है | थियेटर मेरे लिए करियर है ही नहीं | जो लोग थियेटर को करियर के रूप में अपनाना चाहते हैं, उनके लिए बस इतना कहना चाहूँगा कि थियेटर को कररियर के रूप में नहीं देखना चाहिए | लेकिन आपको यह लगता है कि आपकी जीविका बहुत कम संसाधनों में हो सकती है तो आप जाइए | थियेटर बहुत संघर्ष मांगता है | बहुत धक्के खाने पड़ते हैं | लेकिन जिनको थियेटर करना ही है तो वे जाए लेकिन बहुत द्रढ़निश्चयी होकर जाएँ |
                                                         




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