राह चलते
: बचपन की यादों में
चलिये, आपको बचपन की यादों में लिए चलते हैं | यदि बचपन की
यादों में जाएँ, तो आपमें
से अधिकतर को ठेली पर बिकने वाली ऑरेंज, दूध वाली आइसक्रीम याद
होगी, 1 रुपया में मिलने वाले आठ कंपट भी याद होंगे, छोटी-छोटी पन्नियों में बिकने वाला ठंडा भी याद होगा, जिसकी कीमत 1 रुपया होती थी | गूगल भी करेंगे यदि इन
यादों के लिए, तो भी कोई तस्वीर नहीं मिलेगी | बचपन में बाल-वाल काटने के लिए कोई सैलून-वैलून नहीं होती थी | और भी ऐसी कई यादें होगीं, जो आपके ज़ेहन में होगीं| कपड़े धुलवाने के लिए, प्रैस करवाने के लिए हमें अधिकतर
धोबी पर ही निर्भर रहना पड़ता था नहीं तो खुद ही धुल लेते थे,
लेकिन तकनीकी विकास के चलते, व्यवसायीकरण के चलते इन धीरे-धीरे इन सभी का स्थान बड़ी-बड़ी कंपनियों ने
ले लिया है, जिसके कारण हमारे देश में कुटीर उद्योग लगातार खत्म
होता जा रहा है | अभी चुनावों में वाराणसी के जुलाहों ने सूरत
के साड़ी व्यापारियों के ऊपर ये आरोप लगाया था, कि इनके कारण हमारा
उद्योग चौपट हुआ है |
आज भारत में नाई, धोबी कई ऐसी जातियाँ मौजूद हैं, जो कि अपने पुश्तैनी
कारोबार से सरोकार रखती हैं | हालांकि आज के समय में जातियों
के पेशे के मायने बदलते जा रहे हैं | ऐसे में यह जानना जरूरी
है कि आज ऐसी कौन सी समस्याएँ हैं, जिनके चलते ये छोटे-छोटे धंधे
खतरे में पड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं | व्यवसायीकरण की इस अंधाधुंद
दौड़ में कुटीर उद्योग, छोटे पेशे कहीं न कहीं बहुत पीछे
छूटते हुए जा रहे हैं | व्यवसायीकरण ने इन पेशों पर काफ़ी प्रभाव
डाला है |
इस पर दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजी हॉस्टल ग्वायर हाल छात्रावास
के धोबी सियाराम कहते हैं कि “वाशिंग मशीन और लांडरी के नए चलन से हमारा धंधा वैसा नहीं चलता, जैसा पहले था | इससे हमारी रोजी-रोटी पर असर पड़ा है
और हमारी कमाई भी कम हुई है |
उसी छात्रावास के नज़दीक
छोटी सी नाई की दुकान चला रहे एक नाई राजकुमार पेशे में आ रहे बदलावों पर नज़र डालते
हुए अपने अनुभवों को बताते हुए कहते हैं कि
“मैंने इस दुकान की शुरूआत 1996-97 में की थी। 17 साल के इस लंबे समय में मैंने कई बदलावों को देखा है। मार्केट ज्यादा
न होने से पहले सैलून जैसी कोई चीज नहीं थी। आज कई सैलून खुलने से लोगों का वहां
जाना ज्यादा हो गया है जिससे हमारी रोज की कमाई घट रही है और दिल्ली जैसे शहरों
में चिन्ता की और बड़ी बात बन जाती है”।
इसी
पर पास में खड़े आइसक्रीम बेचने वाले का कहना था कि पहले ऑरेंज आइसक्रीम 1 रुपए में
मिल जाती थी | हमें फायदा भी होता था | लेकिन
आज वही आइसक्रीम 10 रुपए में मिलती है और उसमें हमारा शेयर भी बहुत कम होता है | आज कल तो छोटी-छोटी ठेलियों में आइसक्रीम
बेचने वालों की जगह क्वालिटी वाल्स, क्रीम बेल, मदर डेरी आदि ने ले ली है |
छोटे-छोटे पैकटों में
ठंडा बेचने वाले एक दुकानदार काली भैया कहते हैं कि “आज से 6-7 साल पहले पेकेट में
बंद 1 रुपया वाला ठंडा खूब बिकता था, लेकिन अब तो इनकी
जगह कोका-कोला, पेपसी ने ली है | पहले तो
बिकते भी थे, लेकिन कब तक उनके साथ प्रतिस्पर्धा करेंगे |आपको भी पता होगा कि 10 रुपए की शीतल पेय की लागत 2-3 रुपए आती है |”
इन बातों को जानने के बाद ये साफ है कि हर दौर की
अपनी एक जरूरत होती है | जब इंसान ने इतनी बड़ी मात्रा में तकनीकी
विकास नहीं किया था, तो वह कुटीर उद्योगों पर भी निर्भर था , लेकिन आज व्यवसायीकरण की दौड़ में ये लोग कहीं न कहीं बहुत पीछे छूट गए हैं
और आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं |
अगर भविष्य की बात की
जाए,तो कहीं न कहीं कुटीर उद्योगों से जुड़ा हुआ हर वर्ग यही चाहता है कि उनकी आगे
आने वाली पीढ़ी इन कारोबारों में अपना कीमती समय बर्बाद न करे | सियाराम, राजकुमार,काली भैया अपनी
आने वाली पीढ़ी को शिक्षित और कुशल देखना चाहते हैं |
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