मेरी यह कविता पीयूष मिश्रा के “जब शहर हमारा सोता है” कविता से प्रेरित है | मैंने इसे आज के समय से जोड़कर बनाया है | भारत में संसद की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है | नित्य नए आंदोलन जन्म ले रहे हैं और खत्म हो रहे हैं | देश के कोने कोने से न्याय की आवाजें उठ रही हैं | बस ऐसे ही ये कविता लिखा गयी | मेट्रो से अपने लक्ष्य की ओर जा रहा था तभी मैंने ये लिख डाली |
राजनीति......... ढोंग.......... खामोश बेपरवाह........!
राजनीति लेती है ...........करवटें तूफानी..................
घिरा है देश अंधेरे से...........
संसद में काम न होने के फेरे से.........
बढ़ते हैं अपराध इन डकैतों के कामों से,
बदनाम है जनता इन बदनामों से .............
कहीं पे तेलंगाना की खटखट है..............
कहीं पे पुलिस और किसानों की छटपट है........
कहीं पे हैं इटली की आवाजें..........
कहीं पे वो मछुआरों के आँसू हैं...............
कहीं पे वो अधूरा विकास है..........
कहीं सब कुछ खास-खास है..........
कहीं पे उमड़ती पार्टियों का जत्था है.............
कहीं पे उड़ती अफवाहों का हौआ है..........
कहीं पे निर्दोष लोगों की जाती जाने हैं.......
कहीं कुछ राजनीति की खिड़की में सियासी हवाओं का गरम झोका है.......
कहीं पे जनता के साथ वादों का किया गया धोखा है.........
सुनसान गलियों में लोग चीख-चीखकर रोते हैं.........
जब सरकारी रोशनी में महिलाओं के साथ कुछ-कुछ होता है........
जब देश हमारा रोता है.........जब देश हमारा रोता है......... !
जब देश हमारा रोता है, तो मालूम तुमको क्या-क्या होता है?
जागते हैं नए आंदोलन, गुम हो जाते हैं पुराने आंदोलन..........
एक नयी चेतना आती है, लिए चिंगारी घुप्प हो जाती है............
उठती हैं कोने-कोने से लिए न्याय की आवाजें.........
जब देश हमारा रोता है.... जब देश हमारा रोता है .............. !
भ्रष्ट तंत्र इन आवाजों को दबा देता है...............
जब देश हमारा रोता है.... जब देश हमारा रोता है .............. !
राजनीति......... ढोंग.......... खामोश बेपरवाह........!
राजनीति लेती है ...........करवटें तूफानी..................
घिरा है देश अंधेरे से...........
संसद में काम न होने के फेरे से.........
बढ़ते हैं अपराध इन डकैतों के कामों से,
बदनाम है जनता इन बदनामों से .............
कहीं पे तेलंगाना की खटखट है..............
कहीं पे पुलिस और किसानों की छटपट है........
कहीं पे हैं इटली की आवाजें..........
कहीं पे वो मछुआरों के आँसू हैं...............
कहीं पे वो अधूरा विकास है..........
कहीं सब कुछ खास-खास है..........
कहीं पे उमड़ती पार्टियों का जत्था है.............
कहीं पे उड़ती अफवाहों का हौआ है..........
कहीं पे निर्दोष लोगों की जाती जाने हैं.......
कहीं कुछ राजनीति की खिड़की में सियासी हवाओं का गरम झोका है.......
कहीं पे जनता के साथ वादों का किया गया धोखा है.........
सुनसान गलियों में लोग चीख-चीखकर रोते हैं.........
जब सरकारी रोशनी में महिलाओं के साथ कुछ-कुछ होता है........
जब देश हमारा रोता है.........जब देश हमारा रोता है......... !
जब देश हमारा रोता है, तो मालूम तुमको क्या-क्या होता है?
जागते हैं नए आंदोलन, गुम हो जाते हैं पुराने आंदोलन..........
एक नयी चेतना आती है, लिए चिंगारी घुप्प हो जाती है............
उठती हैं कोने-कोने से लिए न्याय की आवाजें.........
जब देश हमारा रोता है.... जब देश हमारा रोता है .............. !
भ्रष्ट तंत्र इन आवाजों को दबा देता है...............
जब देश हमारा रोता है.... जब देश हमारा रोता है .............. !
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