क्षेत्रीय
दल : प्रहरी या मौकापरस्त
भारत
में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों का सहारा जरूर लेना
पड़ेगा | बिना क्षेत्रीय पार्टियों के प्रधानमंत्री
की कुर्सी तक पहुँचना असंभव है | लोकतंत्रात्मक पद्धति
दलीय व्यवस्था पर आधारित है। इंग्लैड सहित विश्व के कुछ देशों ने जहाँ द्विदलीय
लोकतन्त्रात्मक पद्धति को आपनाया हुआ है वहीं भारत जैसे विश्व के सबसे बडे
लोकतन्त्रात्मक में बहुदलीय पद्धति है। देश
में इस समय तमाम छोटी पार्टियों का उदभव हो रहा है | पहले आम चुनाव में देश में चौदह राष्ट्रीय दल थे और
राज्य स्तर के क्षेत्रीय दलों की संख्या मात्र 39
थी। इसकी तुलना में यदि हम आज की स्थिति देखें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने
आते हैं। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में
राष्ट्रीय दलों की संख्या कुल सात रह गयी थी और क्षेत्रीय दल कुल मिलाकर 360
हो गये थे। यह सही है कि इनमें से सब मान्यताप्राप्त दल नहीं थे,
पर यह स्थिति इतना तो बताती ही है कि हमारी राजनीति में क्षेत्रीयता और
वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं का स्थान और हस्तक्षेप पिछले साठ सालों में लगातार बढ़ा
है। पहली लोकसभा के चुनावों में भाग लेने वाले क्षेत्रीय दलों को सिर्फ 34
सीटों पर विजय से संतोष करना पड़ा था और प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि सन् 2009
के चुनावों में सारे देश से क्षेत्रीय दलों के 146
सांसद जीतने में सफल हुए थे। आंध्र
के विभाजन के निर्णय के बाद जो स्थितियां बनी हैं,
वे यह संकेत भी दे रही हैं कि देश के अन्य हिस्सों में भी क्षेत्रीय
जनाकांक्षाएं करवट ले रही हैं और इसका सीधा असर क्षेत्रीय दलों के महत्व और ताकत
पर पड़ेगा।
सबसे
रोचक बात तो ये है कि क्षेत्रिय पार्टियों के क्षेत्र में आने वाली सीटों की बात की
जाए तो सन् 2009 के
चुनावों में सारे देश से क्षेत्रीय दलों के 146 सांसद जीतने
में सफल हुए थे। इस बार के चुनावों में इनका प्रभाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है | अनुमान लगाये जा रहे हैं कि 2014 के चुनाव में शहरी भारत में ‘आप’ जो सेंध लगायेगी, उसमें
उसे 15-20 से लेकर 30-40 सीटें मिल
सकती हैं। यदि यह संख्या 30-40 होती है तो संभव है
कांग्रेस-भाजपा के बाद तीसरी बड़ी पार्टी ‘आप’ ही बने। लेकिन यदि इतनी सफलता नहीं भी मिलती तब भी देश के अन्य प्रमुख
क्षेत्रीय दलों-बसपा, सपा, जेडीयू,
अन्ना द्रमुक, द्रमुक आदि- जितनी ताकतवर तो आप’
भी बनेगी। यानी संसद में एक और ‘क्षेत्रीय दल’!
यह अवश्य देखने की बात होगी कि ‘न किसी को
समर्थन देंगे, न किसी से समर्थन लेंगे’ का नारा लगाने वाली ‘आप’ अगली
संसद में क्या और कैसी भूमिका निभाती है। यह एक हकीकत
है कि पिछले लगभग पच्चीस साल में केंद्र की सरकारें क्षेत्रीय ताकतों के सहयोग या
कहना चाहिए सहारे, से ही चली हैं।
भारत के प्रमुख
क्षेत्रीय दलों पर नज़र डाली जाए तो प्रमुख दलों में सपा, बसपा, जेडेयु, एआईडीएमके, डीएमके, बीजू जनता
दल, तृणमूल
काँग्रेस, अकाली दल, टीआरएस, टीडीपी, शिवसेना, एनसीपी, मनसे, नेशनल कांफ्रेस, हजका, आरजेडी, आरएलडी, सीपीआई, सीपीआई(एम) आते हैं |
ये सभी दल बड़े राज्यों में स्थिति हैं जहां लोकसभा की सीटें बहुत ज्यादा हैं | कहा जाए तो प्रधानमंत्री बनने के लिए यहाँ से अच्छे मतों से जीतकर जाना होगा
या गठबंधन करना होगा | आंकड़ो पर नज़र दौड़ायेँ तो ये सभी पार्टियों
को कुल मिलाकर लगभग 250 से ऊपर सीट हो जातीं हैं | लोकसभा चुनाव, 2009 में देश को दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों की संयुक्त मत हिस्सेदारी 47.5
फीसद रही जो पिछले चुनाव के मुकाबले 1.2 फीसद
कम रही। 1991 के लोकसभा चुनाव में इन दोनों पार्टियों की
संयुक्त मत हिस्सेदारी करीब 57 फीसद थी। पिछले दो दशक के
दौरान इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों की मत हिस्सेदारी में करीब 10 फीसद की गिरावट देखी गई। राष्ट्रीय दलों की मत हिस्सेदारी में गिरावट का
यह आंकड़ा यह बताने को काफी है कि इस कालखंड के दौरान भारतीय राजनीति का कितना
क्षेत्रीयकरण हुआ। तो इसी बात से समझा जा सकता है कि इन दलों
का कितना ज्यादा महत्व है |
भारतीय राजनीति
में क्षेत्रीय दलों पर दलीय हितों के आरोप लगते रहे हैं | उनके ऊपर ये आरोप
लगते हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर पर न सोच कर क्षेत्रीय स्तर पर सोचते हैं | ऐसे में क्षेत्रीय दलों के ऊपर एक बहुत बड़ा सवाल उठने लगता है कि वे लोकतन्त्र
के रक्षक हाँ या फिर खतरा हैं | तृणमूल
कॉंग्रेस की नेता ममता बनर्जी के चलते रेल बजट के बीच में दिनेश त्रिवेदी को पद
छोड़ना पड़ा. एक दुसरे क्षेत्रीय दल डीएमके के दबाव के चलते भारत सरकार को अपना
परंपरागत रुख छोड़ कर श्री लंका के खिलाफ मतदान करना पड़ा |
बजट की निंदा के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणब मुख़र्जी दोनों ने हालात के लिए गठबंधन की राजनीति को ज़िम्मेदार बताया | ऐसे में दूसरा पक्ष ये कहता है कि लोकतंत्र की म़जबूती के लिए राज्यों में तीसरे दलों का और केंद्रीय स्तर पर तीसरे मोर्चे का म़जबूत होना और रहना जरूरी है। दो दलीय प्रणाली हमेशा ही लोकतंत्र को सीमित करती है और वैसी परिस्थिति में जनतंत्र सत्ता के दलालों के हाथों में पूरी तरह चला जाता है। अमेरिका और ब्रिटेन सहित यूरोप के कई प्रमुख देशो में ऐसा हो भी चुका है।
बजट की निंदा के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणब मुख़र्जी दोनों ने हालात के लिए गठबंधन की राजनीति को ज़िम्मेदार बताया | ऐसे में दूसरा पक्ष ये कहता है कि लोकतंत्र की म़जबूती के लिए राज्यों में तीसरे दलों का और केंद्रीय स्तर पर तीसरे मोर्चे का म़जबूत होना और रहना जरूरी है। दो दलीय प्रणाली हमेशा ही लोकतंत्र को सीमित करती है और वैसी परिस्थिति में जनतंत्र सत्ता के दलालों के हाथों में पूरी तरह चला जाता है। अमेरिका और ब्रिटेन सहित यूरोप के कई प्रमुख देशो में ऐसा हो भी चुका है।
भारतीय राजनीति में पिछले दो दशकों में तेजी से विकसित हुए
क्षेत्रीय दलों के प्रभाव के कारणों का जायजा लिया जाय तो कई कारण नजर आते हैं !
कहीं ना कहीं आपातकाल के कारण देश की जनता के मन में सत्ता के विकेन्द्रीकरण की
समझ विकसित हुई ! सत्ता के केन्द्रीयकरण से असंतुष्ट जनता के बीच तत्कालीन
कांग्रेस सरकार की मनमानी रास नहीं आई और परिणामत: क्षेत्रीय दलों के प्रति जनता
ने भरोसा दिखाना शुरू किया ! इस संदर्भ में अगर यू.पी एवं बिहार में क्षेत्रीय
दलों के प्रादुर्भाव को ही देखें तो यू.पी में दलित बहुजन का मुद्दा लेकर दलित
वोटर्स का ध्रुवीकरण करने के लिए कांशीराम आगे आये तो वहीँ यादव-पिछड़ा-मुस्लिम
वोटर्स के एजेंडे पर मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी का जन्म हुआ ! यू.पी में
नवगठित इन दोनों राजनीतिक दलों ने कांग्रेस के वोटबैंक में ही सेंध लगाईं और समय
पडने पर राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस के खिलाफ लामबंद भी हुए ! वहीँ
बिहार में लालू प्रसाद यादव ने मुस्लिम-यादव समीकरण तैयार कर कांग्रेस और वामपंथ
की जमीं खिसका दिया ! राज्यों के स्थानीय मुद्दों पर स्थानीय सियासत करने एवं
जातिगत आधार पर एजेंडा तय करने का यह फार्मूला क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के विकास
की वजह बना ! कभी कांग्रेस के धुर समर्थक रहे दलित और मुस्लिम आजकल यू.पी में
कांग्रेस से बहुत दूर हो चुके हैं !
क्षेत्रीय दल
चुनाव आते ही अपना पाला बदलने लगते हैं |
अभी कुछ ही दिन पहले रामविलास पासवान एनडीए में शामिल हो गए और ये वही नेता हैं जो
बीजेपी को भारत जलाओ पार्टी कहते आए हैं और आज भारत बनाओ पार्टी कह रहे हैं | क्षेत्रीय दलों की विचारधारा की बात की जाए तो उनकी विचारधारा राजनीतिक हवा
की तरह बदलती रहती है | भारतीय राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं | 1991 में कांग्रेस सरकार में छोटे चौधरी यानी अजित सिंह नरसिंह राव के कैबिनेट
मंत्री थे। 1999 में ये अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार
में भी पद हासिल करने में कामयाब रहे। यही नहीं, अपने
क्षेत्रीय राजनीतिक कौशल के बखूबी इस्तेमाल से 2012 में
मनमोहन सिंह की सरकार में भी मंत्री बने। तृणमूल कांग्रेस 1999 के दौरान राजग सरकार का हिस्सा रही जबकि 2009 में
संप्रग सरकार के आखिरी दिनों से पहले तक समर्थन दिया। 1999 में करुनानिधि की द्रमुक राजग सरकार का हिस्सा रही। सत्ता बदलते ही 2004
में यह संप्रग की सहयोगी बनी। संप्रग दो के दौरान भी आखिरी मौके से
पहले तक यह सहयोग बदस्तूर जारी रहा। सत्ता की लालच में ये राजनीतिक दल अपनी
निष्ठाओं को ताक पर रखकर कभी इससे तो कभी उससे गठजोड़ करते हैं। इनमें से अधिकांश
पार्टियां तो गठबंधन का नेतृत्व करने वाले दल के विरोध में चुनाव लड़ती है।
भारतीय लोकतन्त्र
में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है | आज क्षेत्रीय दल बहस के कई मुद्दों को जन्म दे रहे
हैं , जिन पर बात करने की बहुत जरूरत है |
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